श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- आसक्ति रहित इन्द्रियों द्वारा निष्काम भाव से विषय सेवन रूप साधन को यज्ञ का रूप देने के लिये यहाँ ‘इन्द्रिय’ शब्द के साथ ‘अग्नि’ शब्द का समास किया गया है और प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा अनासक्तभाव से अलग-अलग विषयों का सेवन किया जाता है, इस बात को स्पष्ट करने के लिये उसमें बहुवचन का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- शब्दादि विषयों को इन्द्रियरूप अग्नियों में हवन करना क्या है? उत्तर- वश में हुई और राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों के द्वारा वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार योगयता से प्राप्त विषयों का ग्रहण करके उनको इन्द्रियों में विलीन कर देना[1] अर्थात् उनका सेवन करते समय या दूसरे समय अन्तःकरण में या इन्द्रियों में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न करने की शक्ति न रहने देना ही शब्दादि विषयों को इन्द्रियरूप अग्नियों में हवन करना है। अभिप्राय यह है कि कानों के द्वारा निन्दा और स्तुति को या अन्य किसी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल शब्दों को सुनते हुए, नेत्रों के द्वारा अच्छे-बुरे दृश्यों को देखते हुए, जिह्वा के द्वारा अनुकूल और प्रतिकूल रस को ग्रहण करते हुए-इसी प्रकार अन्य समस्त इन्द्रियों द्वारा भी प्रारब्ध के अनुसार योग्यता से प्राप्त समस्त विषयों का अनासक्त भाव से सेवन करते हुए अन्तःकरण में समभाव रखना, भेदबुद्धिजनित राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकारों का न होने देना- अर्थात उन विषयों में जो मन और इन्द्रियों को विक्षिप्त (विचलित) करने की शक्ति है, उसका नाश करके उनको इन्द्रियों में विलीन करते रहना- यही शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूप अग्नियों में हवन करना है। क्योंकि विषयों में आसक्ति, सुख और रमणीय बुद्धि न रहने के कारण वे विषय भोग साधक पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, वे स्वयं अग्नि में घास की भाँति भस्म हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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