श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
उत्तर- इन्द्रिय संयम रूप साधन को यज्ञ का रूप देने के लिये यहाँ संयम को अग्नि बताया गया है और प्रत्येक इन्द्रिय का संयम अलग-अलग होता है, इस बात को स्पष्ट करने के लिये उसमें बहुवचन का प्रयोग किया गया है। प्रश्न - संयमरूप अग्नियों में श्रोत्र आदि इन्द्रियों को हवन करना क्या है? उत्तर- दूसरे अध्याय में कहा गया है कि इन्द्रियाँ बड़ी प्रमथनशील हैं, ये बलात् साधक के मन को डिगा देती हैं[1]; इसलिये समस्त इन्द्रियों को अपने वश में कर लेना- उनकी स्वतन्त्रता को मिटा देना, उनमें मन को विचलित करने की शक्ति न रहने देना तथा उन्हें सांसारिक भोगों में प्रवृत्त न होने देना ही इन्द्रियों को संयमरूप अग्नियों में हवन करना है। तात्पर्य यह है कि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्न और नासिका को वश में करके प्रत्याहार करना- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि बाहर-भीतर के विषयों से विवेक पूर्वक उन्हें हटाकर उपरत होना ही श्रोत आदि इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करना है। इसका सुस्पष्टभाव दूसरे अध्याय के अटावनवें श्लोक में कछुए के दृष्टान्त से बतलाया गया है। प्रश्न- तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में जिस इन्द्रिय संयम को मिथ्याचार बतलाया गया है, उसमें और यहाँ के इन्द्रियसंयम में क्या भेद है? उत्तर- वहाँ केवल इन्दियों को देखने-सुनने तथा खाने-पीने आदि बाह्य विषयों से रोक लेने को ही संयम कहा गया है, इन्द्रियों को वश में करने को नहीं; क्योंकि वहाँ मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते रहने की बात स्पष्ट है। किंतु यहाँ वैसी बात नहीं है, यहाँ इन्द्रियों को वश में कर लेने का नाम ‘संयम’ है। वश में की इन्द्रियों में मन को विषयों में प्रवृत्त करने की शक्ति नहीं रहती। इसलिये जो इन्द्रियों को वश में किये बिना ही केवल दम्भाचार से इन्द्रियों को विषयों से रोक रखता है, परंतु मन से विषयों का चिन्तन करता रहता है और जो परमात्मा की प्राप्ति करने के लिये इन्द्रियों को वश में कर लेता है उसके मन से विषयों का चिन्तन नहीं होता; निरन्तर परमात्मा का ही चिन्तन होता है। यही मिथ्याचारी के संयम का और यथार्थ संयम का भेद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/60
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