चतुर्थ अध्याय
सम्बन्ध- अब आत्मसंयम योगरूप यज्ञ का वर्णन करते हैं-
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्म-संयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।27।।
दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म-संयम योगरूप अग्नि में हवन क्रिया करते हैं ।।27।।
प्रश्न- यहाँ ‘आत्म-संयमयोग’ किस योग का वाचक है और उसके साथ ‘अग्नि’ शब्द का समास किसलिये किया गया है तथा ‘ज्ञानदीपिते’ विशेषण का क्या भाव है?
उत्तर- यहाँ ‘आत्म संयमयोग’ समाधियोग का वाचक है। उस समाधियोग को यज्ञ का रूप देने के लिये उसके साथ ‘अग्नि’ शब्द का समास किया गया है तथा सुषुप्ति से समाधि की भिन्नता दिखलाने के लिये-अर्थात् समाधि-अवस्था में विवेक-विज्ञान की जागृति रहती है, शून्यता का नाम समाधि नहीं है- यह भाव दिखलाने और यज्ञ के रूपक में उस समाधि योग को प्रज्वलित अग्नि की भाँति ज्ञान से प्रकाशित बतलाने के लिये ‘ज्ञानदीपिते’ विशेषण का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- उपर्युक्त समाधि योग का स्वरूप क्या है? तथा उसमें इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की सम्पूर्ण क्रियाओं को हवन करना क्या है?
उत्तर- ध्यानयोग अर्थात् ध्येय में मन का निरोध दो प्रकार से होता है- एक में तो प्राणों का और इन्द्रियों का निरोध करके उसके बाद मन का ध्येय वस्तु में निरोध किया जाता है और दूसरे में, पहले मन के द्वारा ध्येय का चिन्तन करते-करते ध्येय में मन की एकाग्रतारूप ध्यानावस्था होती है। तदनन्तर ध्यान की गाढ़ स्थिति होकर ध्येय में मन का निरोध हो जाता है; यही समाधि-अवस्था है। उस समय प्राणों की और इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रिया अपने-आप रुक जाती है। यहाँ इस दूसरे प्रकार से किये जाने वाले ध्यान योग का वर्णन है। इसलिये परमात्मा के सगुण-साकार या निर्गुण-निराकार-किसी भी रूप में अपनी-अपनी मान्यता और भावना के अनुसार विधिपूर्वक मन का निरोध कर देना ही समाधि योग का स्वरूप है। इस प्रकार के ध्यान योग में जो मनोनिग्रहपूर्वक इन्द्रियों की देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, आस्वादन करना एवं ग्रहण करना, त्याग करना, बोलना और चलना-फिरना आदि तथा प्राणों की श्वास-प्रश्वास और हिलना-डुलना आदि समस्त क्रियाओं को विलीन करके समाधिस्थ हो जाना है- यही आत्मसंयम-योगरूप अग्नि में इन्द्रियों की प्राणों की समस्त क्रियाओं का हवन करना है।
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