श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: ।
उत्तर- यहाँ ‘कवयः’ पद शास्त्रों के जानने वाले बुद्धिमान् पुरुषों का वाचक है। शास्त्रों में भिन्न–भिन्न प्रक्रियाओं से कर्म का तत्त्व समझाया गया है, उसे देख-सुनकर भी बुद्धि का इस प्रकार ठीक–ठीक निर्णय न कर पाना कि अमुक भाव से की हुई अमुक क्रिया अथवा क्रिया का त्याग तो कर्म है तथा अमुक भाव से की हुई अमुक क्रिया या उसका त्याग अकर्म है- यही उनका कर्म-अकर्म के निर्णय में मोहित हो जाना है। इस वाक्य में ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जब बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी इस विषय में मोहित हो जाते हैं- ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते, तब साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है? अतः कर्मों का तत्त्व बड़ा ही दुर्विज्ञेय है। प्रश्न- यहाँ जिस कर्म तत्त्व का वर्णन करने की भगवान् ने प्रतिज्ञा की है, उसका वर्णन इस अध्याय में कहाँ किया गया है? उसको तत्त्व से जानना क्या है और उसे जानकर कर्मबन्धन से मुक्ति कैसे हो जाती है? उत्तर- उपर्युक्त कर्म तत्त्व का वर्णन इस अध्याय में अठारहवें से बत्तीसवें श्लोक तक किया गया है; उस वर्णन से इस बात को ठीक-ठाक समझ लेना कि किस भाव से किया हुआ कौन-सा कर्म या कर्म का त्याग मनुष्य के पुनर्जन्मरूप बन्धन का हेतु बनता है और किस भाव से किया हुआ कौन-सा कर्म या कर्म का त्याग मनुष्य के पुनर्जन्म रूप बन्धन का हेतु न बनकर मुक्ति का हेतु बनता है- यही उसे तत्त्व से जानना है। इस तत्त्व को समझने वाले मनुष्य द्वारा कोई भी ऐसा कर्म या कर्म का त्याग नहीं किया जा सकता जो कि बन्धन का हेतु बन सके; उसके सभी कर्तव्य-कर्म ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना केवल भगवदर्थ या लोकसंग्रह के लिये ही होते हैं। इस कारण उपर्युक्त कर्मतत्त्व को जानकर मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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