श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
एवं ज्ञात्वा कृतं पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: ।
उत्तर- जो मनुष्य जन्म-मरणरूप संसार-बन्धन से मुक्त होकर परमानन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, जो सांसारिक भोगों को दुःखमय और क्षणभंगुर समझकर उनके विरक्त हो गया है और जिसे इस लोक या परलोक के भोगों की इच्छा नहीं है- उसे ‘मुमुक्षु’ कहते हैं। अर्जुन भी मुमुक्षु थे, वे कर्मबन्धन के भय से स्वधर्मरूप कर्तव्यकर्म का त्याग करना चाहते थे; अतएव भगवान् ने इस श्लोक में पूर्वकाल के मुमुक्षुओं का उदाहरण देकर यह बात समझायी है कि कर्मों को छोड़ देने मात्र से मनुष्य उनके बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता; इसी कारण पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी मेरे कर्मों की दिव्यता का तत्त्व समझकर मेरी भी भाँति कर्मों में ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार का त्याग करके निष्काम भाव से अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार उनका आचरण ही किया हैं अतएव तुम भी यदि कर्मबन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें भी पूर्वज मुमुक्षुओं की भाँति निष्काम भाव से स्वधर्मरूप कर्तव्य-कर्म का पालन करना ही उचित है, उसका त्याग करना उचित नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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