श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: ।
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि साधारणतः मनुष्य यही जानते हैं कि शास्त्र विहित कर्तव्य-कर्मों का नाम कर्म है; किंतु इतना जान लेने मात्र से कर्म का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, क्योंकि उसके आचरण में भाव का भेद होने से उसके स्वरूप में भेद हो जाता है। अतः किस भाव से, किस प्रकार की हुई कौन-सी क्रिया का नाम कर्म है? एवं किस स्थिति में किस मनुष्य को कौन-सा शास्त्र विहित कर्म कि प्रकार करना चाहिये- इस बात को शास्त्र के ज्ञाता तत्त्वज्ञ महापुरुष ही ठीक-ठीक जानते हैं। अतएव अपने अधिकार के अनुसार वर्णाश्रमोचित कर्तव्य-कर्मों को आचरण में लाने के लिये तत्त्ववेता महापुरुषों द्वारा उन कर्मों को समझना चाहिये और उनकी प्रेरणा और आज्ञा के अनुसार उनका आचरण करना चाहिये। प्रश्न- अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, इससे कथन का क्या अभिप्राय का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि साधारणतः मनुष्य वही समझते हैं कि मन, वाणी और शरीर द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का स्वरूप से त्याग कर देना ही अकर्म यानी कर्मों से रहित होना है; किंतु इतना समझ लेने मात्र से अकर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जाना जा सकता; क्योंकि भाव के भेद से इस प्रकार का अकर्म भी कर्म या विकर्म के रूप में बदल जाता है और जिसको लोग कर्म समझते हैं वह भी अकर्म या विकर्म हो जाता है। अतः किस भाव से किस प्रकार की हुई कौन-सी क्रिया या उसके त्याग का नाम अकर्म है एवं किस स्थिति में किस मनुष्य को किस प्रकार उसका आचरण करना चाहिये, इस बात को तत्त्वज्ञानी महापुरुष ही ठीक-ठीक जान सकते हैं। अतएव कर्म बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों को उन महापुरुषों से इस अकर्म का स्वरूप भी भली-भाँति समझकर उनके कथनानुसार साधन करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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