श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- अज्ञानी लोग श्रद्धापूर्वक कर्मों में लगे रहते हैं; यह ठीक है; परंतु जब उनको तत्त्वज्ञान की या फलासक्ति के त्याग की बात कही जाती है, तब उन बातों का भाव ठीक-ठीक न समझने के कारण वे भ्रम से समझ लेते हैं कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये या फलासक्ति न रहने पर कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कर्मों का दर्जा नीचा है। इस कारण कर्मों के त्याग में उनकी रुचि बढ़ने लगती है और अन्त में वे मोहवश विहित कर्मों का त्याग करके आलस्य और प्रमाद के वश हो जाते हैं। इसलिये भगवान् उपर्युक्त वाक्य से ज्ञानी के लिये यह बात कहते हैं कि उसको स्वयं अनासक्त भाव से कर्मों का सांगोपांग आचरण करके सब के सामने ऐसा आदर्श रख देना चाहिये, जिससे किसी की विहित कर्मों में कभी अश्रद्धा और अरुचि न हो सके और वे निष्काम भाव से या कर्तापन के अभिमान से रहित होकर कर्मों का विधिपूर्वक आचरण करते हुए ही अपने मनुष्य-जन्म को सफल बना सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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