श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण ही बुद्धि, अहंकार, मन, आकाशादि पाँच सूक्ष्म महाभूत, श्रोतादि दस इन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन तेईस तत्त्वों के रूप में परिणत होते हैं। ये सब-के-सब प्रकृति के गुण हैं तथा इनमें से अन्तःकरण और इन्द्रियों का विषयों को ग्रहण करना-अर्थात् बुद्धि का किसी विषय में निश्चय करना, मन को किसी विषय को मनन करना, कान का शब्द सुनना, त्वचा का किसी वस्तु को स्पर्श करना, आँखों का किसी रूप को देखना, जिह्वा का किसी रस को आस्वादन करना, घ्राण का किसी गन्ध को सूँघना, वाणी का शब्द उच्चारण करना, हाथ का किसी वस्तु को ग्रहण करना, पैरों का गमन करना, गुदा और उपस्थ का मल-मूत्र त्याग करना- कर्म है। इसलिये उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि संसार में जिस प्रकार से और जो कुछ भी क्रिया होती है, वह सब प्रकार से उपर्युक्त गुणों के द्वारा ही की जाती है, निर्गुण-निराकार आत्मा का उनसे वस्तुतः कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज