श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- पूर्व श्लोक में वर्णित परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित आसक्ति रहित तत्त्वज्ञानी का वाचक यहाँ ‘युक्तः’ विशेषण के सहित ‘विद्वान्’ पद है। प्रश्न- शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भम्र उत्पन्न न करने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है? क्या ऐसे मनुष्य को तत्त्वज्ञान का कर्मयोग का उपदेश नहीं देना चाहिये? उत्तर- किसी की बुद्धि में संशय या दुविधा उत्पन्न कर देना ही बुद्धि में भ्रम उत्पन्न करना कहलाता है। अतएव कर्मासक्त मनुष्यों की जो उन कर्मों में, कर्मविधायक शास्त्रों में और अदृष्ट भोगों में आस्तिक बुद्धि है, उस बुद्धि को विचलित करके उनके मन में कर्मों के और शास्त्रों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर देना ही उनकी बुद्धि में भ्रम उत्पन्न करना है। अतः यहाँ भगवान् ज्ञानी को कर्मासक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करने के लिये कहकर यह भाव दिखलाते हैं कि उन मनुष्यों को निष्काम-कर्म का और तत्त्वज्ञान का उपदेश देते समय ज्ञानी को इस बात का पूरा खयाल रखना चाहिये कि उसके किसी आचार-व्यवहार और उपदेश से उनके अन्तःकरण में कर्तव्य कर्मों के या शास्त्रादि के प्रति किसी प्रकार की अश्रद्धा या संशय उत्पन्न न हो जाय; क्योंकि ऐसा हो जाने से वे जो कुछ शास्त्र विहित कर्मों का श्रद्धापूर्वक सकाम भाव से अनुष्ठान कर रहे हैं, उसका भी ज्ञान के या निष्काम भाव के नाम पर परित्याग कर देंगे। इस कारण उन्नति के बदले उनका वर्तमान स्थिति से भी पतन हो जायगा। अतएव भगवान् के कहने का यहाँ यह भाव नहीं है कि अज्ञानियों को तत्त्वज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिये या निष्काम भाव का तत्त्व नहीं समझाना चाहिये; उनका तो यहाँ यही कहना है कि अज्ञानियों के मन में न तो ऐसा भाव उत्पन्न होने देना चाहिये कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये या तत्त्वज्ञान प्राप्त होने के बाद कर्म अनावश्यक है, न यही भाव पैदा होने देना चाहिये कि फल की इच्छा न हो तो कर्म करने की जरूरत ही क्या है और न इसी भ्रम में रहने देना चाहिये कि फलासक्तिपूर्वक सकामभाव से कर्म करके स्वर्ग प्राप्त कर लेना ही बड़े-से-बड़ा पुरुषार्थ है, इससे बढ़कर मनुष्य का और कोई कर्तव्य ही नहीं है। बल्कि अपने आचरण तथा उपदेशों द्वारा उनके अन्तःकरण से आसक्ति और कामना के भावों को हटाते हुए उनको पूर्ववत् श्रद्धापूर्वक कर्म करने में लगाये रखना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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