श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: ।
उत्तर- यहाँ ‘स्वे’ पद का दो बार प्रयोग करके भगवान् ने यह दिखलाया है कि जिस मनुष्य का जो स्वभाविक कर्म है उसी का अनुष्ठान करने से ‘संसिद्धिम्’ पद यहाँ अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि का या स्वर्ग प्राप्ति का अथवा अणिमादि सिद्धियों का वाचक नहीं है; यह उस परम सिद्धि का वाचक है, जिसे परमात्मा की प्राप्ति, परमगति की प्राप्ति शाश्वत पद की प्राप्ति, परमपद की प्राप्ति और निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति कहते हैं। इसके शिवा ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्मों में ज्ञान और विज्ञान भी हैं, उनका फल परम-गति के सिवा दूसरा मानना बन भी नहीं सकता। प्रश्न- यहाँ ‘नरः’ पद किसका वाचक है और उसका प्रयोग करके ‘अपने-अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है’ यह कहने का क्या भाव है? उत्तर- यहाँ ‘नरः’ पद चारों वर्णों में से प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक मनुष्य का वाचक है; अतएव इसका प्रयोग करके ‘अपने-अपने कर्मों में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है’- इस कथन से मनुष्य मात्र का मोक्ष- प्राप्ति में अधिकार दिखलाया गया है। साथ ही यह भाव भी दिखलाया गया है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिये कर्तव्य कर्मों का स्वरूप् से त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, परमात्मा को लक्ष्य बनाकर सदा-सर्वदा वर्णाश्रमोचित कर्म करते-करते ही मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो सकता है।[1] प्रश्न- अपने स्वाभाविक कर्मों में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करता हुआ परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन-इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- पूर्वार्द्ध में यह बात कही गई कि अपने-अपने कर्मों में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को पा लेता है; इस पर यह शंका होती हैं, कि कर्म में मनुष्य को बाधने वाले हैं, उनमें तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को कैसे पाता है। अतः उसका समाधान करने के लिये भगवान् ने यह वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि उन कर्मों में लगे रहकर परमपद को प्राप्त कर लेने का उपाय में तुम्हें अगले श्लोक में स्पष्ट बतलाता हूँ, तुम सावधानी के साथ उसे सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 56
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