श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
उत्तर- अपने-अपने कर्मों द्वारा भगवान् की पूजा करने की विधि बतलाने के लिये पहले इस कथन के द्वारा भगवान् के गुण, प्रभाव और शक्ति के सहित उनके सर्वव्यापी स्वरूप का लक्ष्य कराया गया है। अभिप्राय यह है कि मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्तव्य– कर्म का पालन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि सम्पूर्ण चाराचर प्राणियों के सहित ये समस्त विश्व भगवान् से ही व्याप्त है, अर्थात् भगवान् ही अपनी योगमाया से जगत के रूप में प्रकट हुए हैं। इसलिये यह जगत उन्हीं का स्वरूप है। यह समस्त विश्व भगवान से ही उत्पन्न हुआ है और भगवान् से किस प्रकार व्याप्त है, यह बात नवें अध्याय के चौथे श्लोक की व्याख्या में समझायी गई है। प्रश्न- अपने स्वभाविक कर्मों द्वारा उस परमेश्वर की पूजा करना क्या है? उत्तर- भगवान् इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार सबके प्रेरक, सबके आत्मा, सर्वान्तयामी और सर्वव्यापी हैं; यह सारा जगत् उन्हीं की रचना है और वे स्वयं ही अपनी योगमाया से जगत के रूप में प्रकट हुए हैं, अतएव यह सम्पूर्ण जगत् भगवान् का है; मेरे शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा मेरे द्वारा जो कुछ भी यज्ञ, दान आदि स्ववर्णोचित कर्म किये जाते हैं- वे सब भी भगवान के हैं और मैं स्वयं भी भगवान् का ही हूँ; समस्त देवताओं के एवं अन्य प्राणियों के आत्मा होने के कारण वे ही समस्त कर्मों के भोक्ता हैं[1]- परम श्रद्धा और विश्वास के साथ इस प्रकार समझकर समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का सर्वथा त्याग करके भगवान् आज्ञानुसार उन्हीं की प्रसन्नता के लिये अपने स्वभाविक कर्मों द्वारा जो समस्त जगत की सेवा करना है- अर्थात् समस्त प्राणियों को सुख पहुँचाने के लिये उपर्युक्त प्रकार से स्वार्थ का त्याग करके जो अपने कर्तव्य का पालन करना है, यही अपने स्वभाविक कर्मों द्वारा परमेरश्वर की पूजा करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5। 29
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