श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय जिसमें कर्तृत्व नहीं है, उस परमात्मा के साथ प्राणिमात्र की स्वतः सिद्ध एकता है। साधक से भूल यह होती है कि वह इस वास्तविकता की तरफ ध्यान नहीं देता। जिस प्रकार झूला कितनी ही तेजी से आगे पीछे क्यों न जाय, हर बार वह समता[1] में आता ही है अर्थात जहाँ से झूले की रस्सी बँधी है, उसकी सीध में[2] एक बार आता ही है, उसी प्रकार प्रत्येक क्रिया बाद अक्रिय अवस्था[3] आती ही है। दूसरे शब्दों में, पहली क्रिया के अंत तथा दूसरी क्रिया के आरंभ के बीच और प्रत्येक संकल्प तथा विकल्प के बीच समता रहती ही है। दूसरी बात, यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो झूला चलते हुए[4] भी निरंतर समता में ही रहता है अर्थात् झूला आगे-पीछे जाते समय भी निरंतर[5] सीध में ही रहता है। इसी प्रकार जीव भी प्रत्येक क्रिया में समता में ही स्थित रहता है। परमात्मा से उसकी एकता निरंतर रहती है। क्रिया करते समय समता में स्थिति न दीखने पर भी वास्तव में समता रहती ही है, जिसका कोई अनुभव करना चाहे तो क्रिया समाप्त होते ही[6] अनुभव हो जाता है। यदि साधक इस विषय में निरंतर सावधान रहे तो उसे निरंतर रहने वाली समता या परमात्मा से अपनी एकता का अनुभव हो जाता है, जहाँ कर्तृत्व नहीं है। माने हुए कर्तृत्वाभिमान को मिटाने के लिये प्रतीति और प्राप्त का भेद समझ लेना आवश्यक है। जो दीखता है, पर मिलता नहीं, उसे प्रतीति कहते हैं; और जो मिलता है पर दीखता नहीं, उसे ‘प्राप्त’ कहते हैं। देखने-सुनने आदि में आने वाला प्रतिक्षण परिवर्तन शील संसार ‘प्रतीति’ है, और सर्वत्र नित्य परिपूर्ण परमात्मतत्त्व ‘प्राप्त’ है। परमात्म-तत्त्व ब्रह्मा से चींटी पर्यन्त सब को समानरूप से स्वतः प्राप्त है। इंदता से दीखने वाली प्रतीति का प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्य में जा रहा है। जिनसे प्रतीति होती है, वे इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी प्रतीति ही हैं। नित्य अचल रहने वाले ‘स्वयं’ को प्रतीति की प्राप्ति नहीं होती। सदा सब में रहने वाला परमात्मतत्त्व ‘स्वयं’ को नित्य प्राप्त है। इसलिये ‘प्रतीति’ अभावरूप और ‘प्राप्त’ भावरूप है- ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’।[7] यावन्मात्र पदार्थ और क्रिया ‘प्रतीति’ है। क्रिया मात्र अक्रियता में लीन होती है। प्रत्येक क्रिया के आदि और अंत में सहज[8] अक्रिय तत्त्व विद्यमान रहता है। जो आदि और अंत में होता है, वही मध्य में भी होता है- यह सिद्धांत है। अतः क्रिया के समय भी अखंड और सहज अक्रिय तत्त्व[9] अक्रिय और सक्रिय- दोनों अवस्थाओं को प्रकाशित करने वाला है अर्थात वह प्रकृति और निवृत्ति[10] दोनों से परे हैं। प्रतीति[11] से माने हुए संबंध अर्थात आसक्ति के कारण ही नित्य प्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता। आसक्ति का नाश ही नित्यप्राप्त परमात्म-तत्त्व का अनुभव हो जाता है। अतः आसक्तिरहित प्रतीति[12] की प्रतीति[13] की सेवा में लगा देने से प्रतीति[14] का प्रवाह प्रतीति[15] की तरफ ही हो जाता है और स्वतः प्राप्त परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सम स्थिति
- ↑ आगे-पीछे जाते समय
- ↑ समता
- ↑ विषम दीखने पर
- ↑ जहाँ से झूले की रस्सी बँधी है, उसकी
- ↑ उस समता का
- ↑ गीता 2।16
- ↑ स्वतः सिद्ध
- ↑ चेतन स्वरूप अथवा परमात्म तत्त्व
- ↑ करने और न करने
- ↑ देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि
- ↑ अपने कहलाने वाला शरीरादि पदार्थों
- ↑ संसार मात्र
- ↑ शरीरादि पदार्थों
- ↑ संसार
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