श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । अर्थ- जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरे में निरंतर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम[1] में वहन करता हूँ। व्याख्या- ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते’- जो कुछ देखने, सुनने और समझने में आ रहा है, वह सब-का-सब भगवान का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा ही रही है, वह सब-की-सब भगवान की लीला है- ऐसा जो दृढ़ता से मान लेते हैं, समझ लेते हैं, उनकी फिर भगवान के सिवाय कहीं भी महत्त्व बुद्धि नहीं होती। वे भगवान में ही लगे रहते हैं। इसलिए वे ‘अनन्य’ है। केवल भगवान में ही महत्ता और प्रियता होने से उनके द्वारा स्वतः भगवान का ही चिन्तन होता है। ‘अनन्याः’ कहने का दूसरा भाव यह है कि उनके साधन और साध्य केवल भगवान ही हैं अर्थात केवल भगवान के ही शरण होना है, उन्हीं का चिन्तन करना है, उन्हीं की उपासना करनी है और उन्हीं को प्राप्त करना है- ऐसा उनका दृढ़ भाव है। भगवान के सिवाय उनका कोई अन्य भाव है ही नहीं; क्योंकि भगवान के सिवाय अन्य सब नाशवान है। अतः उनके मन में भगवान के सिवाय अन्य कोई अच्छा नहीं है; अपने जीवन-निर्वाह की भी इच्छा नहीं है। इसलिए वे अनन्य हैं। वे खाना-पीना, चलना-फिरना, बातचीत करना, व्यवहार करना आदि जो कुछ भी काम करते हैं, वह सब भगवान की ही उपासना है; क्योंकि वे सब काम भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करते हैं। ‘तेषां नित्याभियुक्तानाम्’- जो अनन्य होकर भगवान का ही चिन्तन करते हैं और भगवान की प्रसन्नता के लिए ही सब काम करते हैं, उन्हीं के लिए यहाँ ‘नित्याभियुक्तानाम्’ पद आया है। इसको दूसरे शब्दों में इस प्रकार समझें कि वे संसार से विमुख हो गए- यह उनकी ‘अनन्यता’ है वे केवल भगवान के सम्मुख हो गए- यह उनका ‘चिन्तन’ है और सक्रिय-अक्रिय सभी अवस्थाओं में भगवत्सेवापरायण हो गए- यह उनकी ‘उपासना’ है। ये तीनों बातें जिनमें हो जाती हैं, वे ही ‘नित्याभियुक्त’ हैं। ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’- अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करा देना ‘योग’ है और प्राप्त सामग्री की रक्षा करना ‘क्षेम’ है। भगवान कहते हैं कि मेरे में नित्य-निरंतर लगे हुए भक्तों का योगक्षेम में वहन करता हूँ। वास्तव में देखा जाए तो अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कराने में भी ‘योग’ का वहन है और प्राप्ति न करने में भी ‘योग’ का वहन है। कारण कि भगवान तो अपने भक्त का हित देखते हैं और वही काम करते हैं, जिसमें भक्त का हित होता हो। ऐसे ही प्राप्त वस्तु की रक्षा करने में भी ‘क्षेम’ का वहन है और रक्षा न करने में भी ‘क्षेम’ का वहन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा
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