श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
‘ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए’- यह सोचने की हमें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। कारण कि हम सदा भगवान के हाथ में ही हैं और भगवान सदा ही हमारा वास्तविक हित करते रहते हैं। इसलिए हमारा अहित कभी हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि भक्त का मनचाहा हो जाए तो उसमें भी कल्याण है और मनचाहा न हो तो उसमें भी कल्याण है। भक्त का चाहा और न चाहा कोई मूल्य नहीं रखता, मूल्य तो भगवान के विधान का है। इसलिए अगर कोई अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न होता है, तो वह भगवान का दास नहीं है, प्रत्युत अपने मन का दास है। वास्तव में तो ‘योग’ नाम भगवान के साथ संबंध का है और ‘क्षेम’ नाम जीव के कल्याण का है। इस दृष्टि से भगवान भक्त के संबंध को अपने साथ दृढ़ करते हैं- यह तो भक्त का ‘योग’ हुआ और भक्त के कल्याण की चेष्टा करते हैं- यह भक्त का ‘क्षेम’ हुआ। इसी बात को लेकर दूसरे अध्याय के पैंतालीसवें श्लोक में भगवान ने अर्जुन के लिए आज्ञा दी कि ‘तू निर्योगक्षेम हो जा’ अर्थात तू योग और क्षेम-संबंधी किसी प्रकार की चिन्ता मत कर। ‘वहाम्यहम्’ का तात्पर्य है कि जैसे छोटे बच्चे के लिए माँ किसी वस्तु की आवश्यकता समझती है, तो बड़ी प्रसन्नता और उत्साह के साथ स्वयं वह वस्तु लाकर देती है। ऐसे ही मेरे में निरंतर लगे हुए भक्तों के लिए मैं किसी वस्तु की आवश्यकता समझता हूँ, तो वह वस्तु मैं स्वयं ढोकर लाता हूँ अर्थात भक्तों के सब काम मैं स्वयं करता हूँ। संबंध- पूर्वश्लोक में अपनी उपासना की बात कह करके अब भगवान अन्य देवताओं की उपासना की बात कहते हैं। |
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