महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
28.पाशुपत
इसलिए वह नीति-शास्त्र का सहारा लेते और अपनी और शत्रु की ताकत की तुलना करके भीमसेन और द्रौपदी को समझाते। वह कहते- "भूरिश्रवा, द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, अश्वत्थामा आदि बड़े-बड़े योद्धा शत्रु के पक्ष में हैं। इसके अलावा दुर्योधन और उसके भाई स्वयंयुद्ध कुशल हैं। छोटे-बड़े कितने ही राजा दुर्योधन के पक्ष में चले गये हैं। भीष्म और द्रोणाचार्य यद्यपि दुर्योधन को अधिक नहीं मानते हैं, फिर भी वे उसका साथ छोड़ेगे, ऐसा नही दीखता। युद्ध में दुर्योधन की खातिर प्राणों तक की बलि चढ़ाने को वे तैयार है। अटल योद्धा कर्ण शस्त्र-विद्या का पार पा चुका है। वह बड़ा ही उत्साही वीर है और इस बात के लिए प्रयत्नशील रहता है। युद्ध के संचालन में भी उसे कमाल हासिल है। ऐसे-ऐसे कुशल योद्धा जब शत्रु के पक्ष में हैं तो अभी हमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। उतावली से काम नहीं बनेगा।" इस भाँति युधिष्ठिर अपने भाइयों की उत्तेजना कम करने और उनको सहनशील बनाये रखने का प्रयत्न करते रहते थे। इसी बीच एक बार व्यास जी से पांडवों की भेंट हो गई। उनकी सलाह मानकर अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए हिमालय पर तपस्या करने गया। भाइयों से विदा लेने के बाद अर्जुन पांचाली से विदा मांगने गया तो वह बोली- "हे धनंजय, मेरी कामना है कि तुम जिस उद्देश्य के लिए जा रहे हो, वह पूरा हो। माता कुन्ती ने तुमसे जो-जो आशायें की हैं वे सब पूरी हों। हम सबके सुख-दु:ख जीवन, मान एवं संपत्ति के तुम्ही आधार हो। कार्य सिद्ध करके कुशल-पूर्वक जल्दी लौटना।" यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि तपस्या के निमित्त जब अर्जुन जाने लगा तो यद्यपि पत्नी रूप में ही बोल रही थी; पर उसके हृदय में मातृभाव प्रबल हो उठा था। प्रेम की जगह वात्सल्य ने ले ली थी। माता कुन्ती के स्थान पर स्वयं उसने अपने पति अर्जुन को आशीर्वाद देकर विदा किया। अर्जुन हिमालय की ओर चल दिया। चलते-चलते वह इंद्रालिक नामक पर्वत पर जा पहुँचा। वहाँ एक बूढ़े ब्राह्मण से उसकी भेंट हुई। "बच्चे! कौन हो तुम, यह कवच पहने, धनुष बाण और तलवार लिये यहाँ कैसे भूल पड़े, बेटा! यह तो तपोवन है। जिन लोगों ने क्रोध और वासना को त्याग दिया हो, उन्हीं तपस्वियों के योग्य है यह स्थान। अस्त्र–शस्त्रों का तो यहाँ काम ही नहीं है। फिर क्षत्रियों के-से इस भेष में तुम यहाँ क्या करने आये हो?" बूढ़े ब्राह्मण ने मुस्कराते हुए पूछा। यह देवराज इंद्र थे और अपने पुत्र को देखने आये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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