महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
20.जरासंध-वध
बच्चा पाकर बृहद्रथ के आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने रनिवास में जाकर रानियों के हाथ में बच्चा दे दिया और राज्य-भर में पुत्र-प्राप्ति के उपलक्ष्य में बड़ा आनन्द मनाया। जरासंध के जन्म की यह कथा है। मुनि चण्डकौशिक के वरदान के कारण जरासंध शरीर का इतना हट्टा कट्टा और बली हुआ कि कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। किंतु एक कमी यह थी कि चूंकि उसका शरीर दो अलग-अलग टुकड़ों में जुड़ने से एक हुआ था, इसलिये दो हिस्सों में बँट भी सकता था। इस मनोरंजक कथा में यह सत्य छिपा हुआ है कि दो जुदे-जुदे भाग अगर आपस में जुड़ जायें तो भी कमज़ोर रहते हैं। उनके फट जाने की आशंका बनी रहती है। जब जरासंध के साथ युद्ध करने और उसका वध करने का निश्चय हो गया, तो श्रीकृष्ण बोले- "हंस, हिडिंबक, कंस तथा दूसरे सहायकों के खत्म हो जाने के कारण अब जरासंध अकेला पड़ गया है। उसे मारने का यही अच्छा मौका है। पर सेना लेकर उस पर हमला करना बेकार है। उसे तो द्वन्द्व युद्ध में कुश्ती लड़कर ही मारना ठीक होगा।" उन दिनों यह रिवाज था कि किसी क्षत्रिय को यदि कोई द्वन्द्व युद्ध के लिये ललकारता तो उसे उसकी चुनौती स्वीकार करनी पड़ती थी, फिर वह चाहे शास्त्र युद्ध हो या कुश्ती। इसी रिवाज का लाभ उठाकर श्रीकृष्ण और पाण्डवों ने अपनी योजना बनाई। श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन ने वल्कल पहन लिये, हाथ में कुशा ले ली और व्रती लोगों का-सा वेष धारण करके मगध देश के लिये रवाना हो गये। राह में सुन्दर नगरों तथा गाँवों को पार करते हुए वे तीनों जरासंध की राजधानी में पहुँचे। जरासंध को इधर कई अपशकुन हुए थे, इससे उसका मन बड़ा परेशान रहता था। पुराहितों ने उसकी शान्ति कराई और उसने भी व्रत आदि रखे थे। ऐसे समय श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन राजभवन में दाखिल हुए। वे निःशस्त्र थे और वल्कल पहने हुए थे। जरासंध ने कुलीन अतिथि समझकर उनका बड़े आदर के साथ स्वागत किया। जरासंध के स्वागत का भीम और अर्जुन ने कोई जवाब नहीं दिया। वे दोनों मौन रहे। इस पर श्रीकृष्ण बोले- "मेरे दोनों साथियों ने मौन व्रत लिया हुआ है, इस कारण अभी नहीं बोलेंगे। आधी रात के बाद व्रत खुलने पर बातचीत करेंगे।" जरासंध ने इस बात पर विश्वास कर लिया और तीनों मेहमानों को यज्ञशाला में ठहराकर महल में चला गया। कोई ब्राह्मण अतिथि जरासंध के यहाँ आता तो उनकी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार बातें करना व उनका सत्कार करना जरासंध का नियम था। इसके अनुसार आधी रात के बाद जरासंध अतिथियों से मिलने गया, लेकिन अतिथियों के रंग ढंग देखकर मगध नरेश के मन में कुछ शंका हुई। सोचा दाल में कुछ काला अवश्य है। जरा गौर से देखने पर जरासंध ने ब्राह्मण अतिथियों के हाथों पर ऐसा चिह्न देखा जो धनुष की डोरी द्वारा रगड़ खाने से पड़ जाता है। दूसरे चिह्नों से भी उसे पता चल गया कि ये ब्राह्मण नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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