महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
19.जरासंध
श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर शान्तिप्रिय राजा युधिष्ठिर बोले, "आपका कहना बिलकुल सही है। मेरे जैसे और भी कितने राजा हैं जो अपने-अपने राज्य में बड़े प्रतापी माने जाते हैं। जो पद प्राप्त नहीं हो सकता, उसकी इच्छा करना बेकार है। मेरे जैसे व्यक्ति के लिये यह उचित नहीं कि सम्राट के सम्मानित पद की आकांक्षा रक्खे। परमात्मा की बनाई हुई यह पृथ्वी काफी विशाल है, धन-धान्य की अटूट खान है। इस विशाल संसार में कितने ही राजाओं के लिये जगह है। कितने ही नरेश अपने-अपने राज्य का शासन करते हुए इससे संतुष्ट रह सकते हैं। आकांक्षा वह आग है जो कभी बुझती नहीं। इसलिये मेरी भलाई इसी में दीखती है कि साम्राज्याधीश बनने का विचार छोड़ दूं और जो ईश्वर ने दिया है उसी को लेकर संतुष्ट रहूँ। भीमसेन आदि बन्धु तो चाहते हैं कि मैं सम्राट बन जाऊँ, परन्तु जब पराक्रमी जरासंध से आप स्वयं इतने डरे हुए हैं तो फिर हमारी हस्ती ही क्या है?" धर्मराज युधिष्ठिर की यह विनयशीलता भीमसेन को अच्छी न लगी। उसने कहा- "प्रयत्नशीलता राजा लोगों का खास गुण मानी जाती है। जो अपनी शक्ति को आप ही नहीं जानते, उनके पौरुष को धिक्कार है। हाथ-पर हाथ धर कर बैठे रहना मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता। जो सुस्ती को झाड़ दे और राजनीतिक चालों को कुशलता से काम में लाये वह अपने से अधिक ताकतवर राजा को भी हरा सकता है। युक्ति के साथ प्रयत्न करते रहने से जीत अवश्य प्राप्त होगी। श्रीकृष्ण की नीति-कुशलता, मेरा शारीरिक बल और अर्जुन का शौर्य एक साथ मिल जाने पर कौन सा ऐसा काम है जो हम नहीं कर सकते? यदि हम तीनों एक साथ चल पड़े तो जरासंध की शक्ति को चूर करके लौटेंगे। आप इस बात की शंका न करें।" यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा- "इसमें शक नहीं कि अत्याचारी जरासंध को मारना ही ठीक होगा। उसने बिना किसी अपराध के अनेक राजाओं को जेलखाने में डाल रक्खा है। उसका यह भी इरादा मालूम होता है कि जब पूरे एक सौ राजा पकड़े जा चुकेंगे तो बलि-पशुओं के स्थान पर उन राजाओं को वध करके यज्ञ का अनुष्ठान करेगा। ऐसे अत्याचारी को मारना ही न्यायोचित है। यदि भीम और अर्जुन सहमत हों तो हम तीनों एक साथ जाकर उस अन्यायी का वध करके जेल में पड़े हुए निर्दोष राजाओं को छुड़ा सकेंगे - यह बात मुझे पसंद है।" परन्तु युधिष्ठिर को यह बात न जँची। उन्होंने कहा- "मुझे भय है कि साम्राज्याधीश बनने के फेर में पड़कर आँखों के तारे जैसे भीमसेन और अर्जुन को कहीं गँवा न बैठूँ। जिस कार्य में उनके प्राणों पर बन आने की संभावना है? उसके लिये उन्हें भेजने को मेरा मन नहीं मानता। मैं तो कहूँगा कि इस विचार को छोड़ देना ही अच्छा होगा।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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