महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
76.दुर्योधन का कुचक्र
अत: युधिष्ठिर का वध करने से कोई लाभ नहीं हो सकता। उल्टे, यदि युधिष्ठिर को जीता पकड़ लिया जाये तो युद्ध भी शीघ्र बंद हो जायेगा और जीत भी कौरवों की होगी। थोड़ा राज्य युधिष्ठिर को देने का बहाना करना होगा, सो वह कर देंगे और बाद में फिर जुआ खेलकर सहज ही में उसे वापस छीन भी लेंगे। क्षत्रियोचित धर्म मानने वाले और बात के पक्के युधिष्ठिर को जुआ खेलकर फिर वन में भेजा जा सकता है। इधर दस दिन के युद्ध में दुर्योधन को यह भी मालूम हो चुका था कि लड़ने से कुल की तबाही ही होने वाली है; सफल होना शायद संभव नहीं है। इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से युधिष्ठिर को जीवित पकड़ लाने का अनुरोध किया। लेकिन द्रोण को जब दुर्योधन के असली उद्देश्य का पता लगा तो वह बहुत उदास हो गये। सोचने लगे कि झूठे ही वह कल्पना करने लगे थे कि दुर्योधन का दिल अच्छा है। इससे उसके मन में दुर्योधन के प्रति तीव्र घृणा उत्पन्न हो गई। वह मन-ही-मन दुर्योधन को कोसने लगे, परन्तु फिर भी यह सोचकर उन्होंने संतोष मान लिया कि युधिष्ठिर के प्राण न लेने का कोई-न-कोई बहाना तो मिला ही। इधर पांडवों को जासूसों द्वारा यह मालूम हो गया कि आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने का निश्चय किया है। पांडव तो द्रोणाचार्य की अद्वितीय शूरता एवं शस्त्र-विद्या के अनुपम ज्ञान से भली-भाँति परिचित ही थे। अत: जब सुना कि द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को पकड़ने का निश्चिय ही नहीं किया, बल्कि प्रतिज्ञा भी की है तो वे भी भयभीत हो गये। सबको यही चिंता रहने लगी कि किसी भी तरह युधिष्ठिर की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबंध किया जाये। इस कारण पांडव-सेना की व्यूह-रचना इस तरह से की गई कि जिससे युधिष्ठिर के चारों ओर उनकी सुरक्षा के लिये काफी सेना मुस्तैदी से रह सके। सेना का एक बहुत बड़ा भाग युधिष्ठिर की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। द्रोण के सेनापतित्व में युद्ध प्रारंभ हुआ। पहले दिन के संग्राम में उन्होंने अपने पराक्रम का काफी परिचय दिया। जैसे आग किसी सूखे वन को जलाती हुई फैलती है, वैसे ही पांडव-सेना को जलाते हुए आचार्य द्रोण चक्कर काटते रहे। किसी को पता भी नहीं चला कि द्रोण हैं किस मोर्चे पर। ऐसी फुर्ती के साथ इधर-उधर रथ चलाते, बाण बरसाते और सर्वनाश मचाते रहे कि पांडव-सेना को भ्रम होने लगा कि कहीं द्रोण अनेक तो नहीं हो गये। पांडव सेना का व्यूह उस मोर्चे पर टूट गया जिस पर सेनापति धृष्टद्युम्न था और महारथियों में घोर द्वंद्व छिड़ गया। माया-युद्ध का निपुण शकुनि सहदेव से युद्ध करने लगा। जब उनके रथ टूट गये तो दोनों वीर रथ से उतर पड़े और गदा लेकर एक-दूसरे से ऐसे टकराये, मानो दो पहाड़ जीवित होकर भिड़ गये हों। भीमसेन और विविंशति में जो युद्ध हुआ, उसमें दोनों के रथ टूट-फूट गये। शल्य ने अपने भानजे नकुल को बहुत सताया। नकुल को इससे बड़ा क्रोध चढ़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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