महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
63.आशीर्वाद-प्राप्ति
आचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहा –"धन किसी के अधीन नहीं होता। किंतु मनुष्य तो धन ही का गुलाम बना रहता है। यही कारण है कि मैं भी कौरवों के अधीन हूँ –उनका साथ देने को विवश हूँ। फिर भी मेरी यही कामना है कि जीत तुम्हारी ही हो।" आचार्य द्रोण से आशीष ले धर्मराज ने आचार्य कृप एवं मद्रराज शल्य के पास जाकर उनके भी आशीर्वाद प्राप्त किये और अपनी सेना में लौट आए। युद्ध शुरू हुआ, तो पहले बड़े योद्धाओं में द्वंद्व होने लगा। बराबर की ताकत वाले, एक ही जैसे हथियार लेकर दो-दो की जोड़ी में लड़ने लगे। अर्जुन के साथ भीष्म, सात्यकि के साथ कृतवर्मा और अभिमन्यु बृहत्पाल के साथ भिड़ गये। भीमसेन दुर्योधन से जा भिड़ा। युधिष्ठिर शल्य के साथ लड़ने लगे। धृष्टद्युम्न ने आचार्य द्रोण पर सारी शक्ति लगाकर हमला बोल दिया और इसी प्रकार प्रत्येक वीर युद्ध-धर्म का पालन करता हुआ द्वंद्व युद्ध करने लगा। इन हजारों द्वंद्व युद्धों के अलावा ‘संकुल-युद्ध’ भी होने लगा। हजारों-लाखों सैनिकों के झुंड-के-झुंड जाकर विरोधी सैनिक-दल पर टूट पड़ने लगे। इस प्रकार एक दल के दूसरे दल से लड़ने को ‘संकुल-युद्ध’ कहा जाता था। दोनों पक्ष के असंख्य सैनिक पागलों की भाँति अंधाधुंध लड़े और गाजर-मूली की भाँति कट-मरे। रक्त और मांस के साथ रौंदी जाकर हरी-भरी भूमि कीचड़ भरे दलदल-सी बन गई। ऊपर से कितने ही घोड़े और हाथी भी इस दलदल में कट-कट कर गिरे। इस कारण रथों का चलना कठिन हो गया। उनके पहिये कीचड़ में धंस जाते थे। कभी-कभी लाशों में फंस जाने से रथ भी रुक जाते थे। आजकल की युद्ध-प्रणाली में द्वंद्व युद्ध की प्रथा ही बंद हो गई है। अंधाधुंध ‘संकुल-युद्ध’ ही हुआ करता है। भीष्म के नेतृत्व में कौरव-वीरों ने दस दिन तक युद्ध किया। दस दिन के बाद भीष्म आहत हुए और द्रोणाचार्य सेनापति नियुक्त किये गये। द्रोणाचार्य भी जब खेत रहे तो कर्ण को सेनापतित्व ग्रहण करना पड़ा। सत्रहवें दिन की लड़ाई में कर्ण का भी स्वर्गवास हो गया। इसके बाद शल्य ने कौरवों का सेनापति बनकर सेना का संचालन किया। इस प्रकार महाभारत का युद्ध कुल अठारह दिन चला। युद्ध के अंतिम दिनों में घोर अन्याय और कुचक्रों से काम लिया गया। बुरी युक्तियों का बोलबाला हो गया। प्राय: देखा जाता है कि धर्म अचानक नष्ट नहीं हो जाता। समय-समय पर उसे विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है और उसकी परीक्षा हुआ करती है। बड़े-बड़े धर्मात्मा भी ऐसी नाजुक घड़ियों में अपने औसान भूल जाते हैं और अधर्म की राह चल पड़ते हैं। बड़े जिस रास्ते जायें, साधारण लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं। फलत: अधर्म पर सबके-सब उतारू हो जाते हैं। धीरे-धीरे धर्म की आवाज नक्कारखाने में तूती की-सी हो जाती है। अंत में धर्म का नाम-निशान तक मिट जाता है और संसार पर अधर्म का ही राज हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज