महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
5.देवयानी का विवाह
जो बात-बात पर बिगड़ता है, उसे नौकर, क्या मित्र, क्या पत्नी, क्या भाई, सब छोड़कर चले जाते हैं। धर्म और सच्चाई तो एकदम ही उसका साथ छोड़ देते हैं। समझदार लोग बालकों की बातों पर ध्यान नहीं दिया करते।" यह सुन देवयानी ने नम्रभाव से कहा, "पिता जी, मैं यद्यपि उम्र में छोटी हूँ, फिर भी धर्म का कुछ मर्म तो जानती हूँ। क्षमा बड़ा धर्म है, यह मुझे मालूम है। फिर भी जिनमें शील नहीं, जो कुल की मर्यादा नहीं जानते, उनके पास रहना कहाँ का धर्म है? समझदार लोग ऐसे लोगों के साथ कभी नहीं रहते जो कुलीनों की निन्दा करते हैं, कुलवानों की इज्जत करना नहीं जानते। जिनमें शील नहीं, जिनका व्यवहार सज्जनोचित नहीं, वे चाहे संसार भर के धनी हों, फिर भी चांडाल ही समझे जाते हैं। सज्जनों को ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिये। तलवार के घाव पर मरहम लग सकता है, किन्तु शब्दों का घाव जीवन भर नहीं भर सकता। वृषपर्वा की कन्या की बातों से मेरे शरीर में आग सी लग गई है। जैसे पीपल की लकड़ी रगड़ खाकर जल उठती है, वैसे ही मेरा मन जल रहा है। अब मैं शांत कैसे होऊँ?"
"राजन! पाप का फल तत्काल ही चाहे न मिले, पर मिलता जरूर है और वह पापी के वंश में जड़ें तक काट देता है- और तुम पाप के रास्ते पर निकल पड़े हो। बृहस्पति का पुत्र कच, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता हुआ, प्रेम से मेरी सेवा-टहल करके शिक्षा पा रहा था। उस निर्दोष को तुमने कई बार मरवाया, तब भी मैं चुप रहा। पर अब क्या देखता हूँ कि मेरी प्यारी बेटी देवयानी को, जो आत्माभिमान को प्राणों से भी अधिक समझती है, तुम्हारी लड़की ने अपमानित किया और मार-पीटकर कुएँ में धकेल दिया। यह अपमान देवयानी के लिये असहनीय है। उसने निश्चय किया है कि अब वह तुम्हारे राज्य में नहीं रहेगी और तुम जानते हो कि वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है, सो उसके बिना मैं यहाँ नहीं रह सकता। अतः मैं भी तुम्हारा राज्य छोड़कर जा रहा हूँ।" आचार्य की बातें सुनकर वृषपर्वा तो हक्का-बक्का रह गया। वह नम्रतापूर्वक बोला- "गुरुदेव, मैं निर्दोष हूँ। आपने जो कुछ कहा, उन सब बातों से मैं सर्वथा अपरिचित हूँ। आप मुझे छोड़ जायेंगे तो मैं पल भर भी नहीं जी सकता। मैं आग में कूदकर मर जाऊँगा।" शुक्राचार्य दृढ़ता पूर्वक बोले- "तुम और तुम्हारे दानव-गण चाहे आग में जल मरो, चाहे समुद्र में डूब मरो, जब तक मेरी प्राणप्यारी बेटी का दुःख दूर न होगा, मेरा मन शान्त नहीं होगा। जाकर मेरी बेटी को समझाओ। अगर वह मान गई, तो ही मैं यहाँ रह सकता हूँ, वरना नहीं।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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