महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
60.रुक्मिणी
यह सुनकर अर्जुन हंसते हुए श्रीकृष्ण की ओर देखकर रुक्मी से बोले- "राजन! हम शत्रु की भारी सेना देखकर भय नहीं खाते। न हम इस शर्त पर आपकी सहायता ही चाहते हैं। आप बिना किसी शर्त के सहायता करना चाहते हों तो आपका स्वागत है। नहीं तो आपकी जैसी इच्छा।" यह सुन रुक्मी बड़ा क्रुद्ध हुआ और अपनी सेना लेकर दुर्योधन के पास चला गया। "पांडव हमें नहीं चाहते, इस कारण मैं आपकी सहायता को आया हूँ।" रुक्मी ने दुर्योधन से कहा। "यह बात है। पांडवों के अस्वीकार करने पर आपने हमारी तरफ आने की कृपा की। किंतु पांडवों ने जिसकी सहायता स्वीकार नहीं की, हमें उसकी सहायता स्वीकार करने की जरूरत नहीं।" यह कहकर दुर्योधन ने भी रुक्मी की सहायता ठुकरा दी। बेचारा रुक्मी दोनों तरफ से अपमानित होकर भोजकट को वापस लौट गया। रुक्मी कर्तव्य से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से कुरुक्षेत्र गया और अपमानित हुआ। युद्ध में तटस्थ होने के भी कई कारण होते हैं। कोई शांतिप्रियता के कारण युद्ध में शरीक नहीं होते, कोई स्वार्थ, गर्व आदि राजसी गुणों के कारण और कोई सुस्ती, भय आदि तामसी गुणों के कारण युद्ध से किनाराकशी करते हैं। मतलब यह है कि सबका कार्य एक जैसा होने पर भी उद्देश्य में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आकाश-पाताल का अंतर हो जाता है। महाभारत में बलराम भी तटस्थ रहे और रुक्मी भी। किंतु जहाँ बलराम सात्त्विक गुण से प्रेरित होकर युद्ध से हट गये, वहाँ रुक्मी को अपने राजसी गुण के कारण तटस्थ रहना पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज