महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
55.सुई की नोक जितनी भूमि भी नहीं
धृतराष्ट्र ने बड़े संतप्त होकर दुर्योधन को समझाया- "बेटा, भीष्म जो कहते हैं वही करने योग्य है। युद्ध न होने दो। संधि ही करना उचित है। यह सब मैं अनुभव करता हूं, परंतु क्या करूं। मैं कितनी ही बार क्यों न समझाऊँ, फिर भी ये मूर्ख अपने ही रास्ते जा रहे हैं। जिनमें विवेक और अनुभव है, वे सब एक स्वर में कहते हैं कि संधि ही कर लेनी चाहिए। मेरी भी यही राय है कि पांडवों से संधि कर लें। पर पता क्यों नहीं, तुम इनकी बातों पर ध्यान नहीं देते?" दुर्योधन, जो यह सब बातें सुन रहा था, उठा और अपने पिता का साहस बंधाता हुआ बोला- "पिता जी, आज आप तो ऐसे भय-विह्वल हो रहे हैं, मानो हम सब बिलकुल कमज़ोर हैं। जितना सेना-बल चाहिए था उतना हमने इकट्ठा कर लिया। अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि हम विजय अवश्य प्राप्त करेंगे। आप भी कैसे भोले हैं, जो यह भी नहीं समझते हैं कि स्वयं युधिष्ठिर हमारा सैन्य–बल देखकर घबरा उठे हैं और इसी कारण आधे राज्य की बात छोड़कर अब केवल पांच गांवों की याचना कर रहे हैं। क्या उनकी इस पांच गांववाली मांग से यह नहीं सिद्ध होता कि हमारी ग्यारह अक्षौहिणी सेना देखकर युधिष्ठिर के मन में भय उत्पन्न हो गया है? आप मुझे यह बताइये कि ग्यारह अक्षौहिणी सेना का पांडव अपनी सात अक्षौहिणी सेना से कैसे मुकाबला कर सकेंगे? इतने पर भी आपको हमारी विजय के बारे में संदेह हो रहा है। यह बड़े आश्चर्य की बात है।" धृतराष्ट्र ने समझाते हुए कहा- "बेटा, जब पांच गांव देने से ही युद्ध टलता है तो बाज आओ युद्ध से। इसमें तुमको आपत्ति है ? तुम्हारे पास तो फिर भी पूरा-का-पूरा राज्य रह जाता है। अब हठ न करो।" लेकिन इस उपदेश से दुर्योधन चिढ़ गया और तेज होकर बोला- "मैं तो सुई की नोंक बराबर भूमि भी पांडवों को नहीं देना चाहता। आपकी जो इच्छा हो, करें। अब इसका फैसला युद्धभूमि में ही होगा।" यह कहता-कहता दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बाहर चला आया। सभा में खलबली मच गई और इस गड़बड़ी में सभा भंग हो गई। इधर संजय के उपप्लव्य से रवाना हो जाने के बाद युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से बोले- "वासुदेव! संजय धृतराष्ट्र के मानो दूसरे प्राण हैं। उनकी बातों से मुझे धृतराष्ट्र के मन की बात स्पष्ट रूप से मालूम हो गई। धृतराष्ट्र हमें कुछ दिये बिना ही संधि कर लेना चाहते हैं। पहले संजय ने जो मीठी बातें कीं उनसे मैं बड़ा प्रसन्न हो गया था। किंतु बाद में उन्होंने जो कुछ कहा, उससे मेरी प्रसन्नता चली गई। उनका वह कहना घोर अन्याय प्रतीत हुआ। धृतराष्ट्र ने हमसे सच्चाई नहीं बरती। परीक्षा का समय अब आ ही गया मालूम होता है। इस संकट भरी घड़ी में आपको छोड़कर और कोई हमारी रक्षा नहीं कर सकता। मैंने तो कहला भेजा है कि मैं केवल पांच ही गांवों से संतोष मान लूंगा; किंतु ऐसा लगता है कि वे दुष्ट इतना भी देने को तैयार न होंगे। आप ही बताइये कि यह अन्याय सहा भी जाये तो कैसे? इस बारे में आप ही सलाह दे सकते हैं। धर्म, नीति एवं युक्ति का जानकार आपके सिवाय हमारे लिये और कोई नहीं है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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