महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
5. देवयानी का विवाह
देवयानी ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाते हुए कहा- "मैं असुर-गुरु शुक्राचार्य की कन्या हूँ। पिता जी को यह मालूम नहीं है कि मैं कुएँ में पड़ी हूँ। कृपाकर मुझे बाहर निकालिये।" राजा ने देवयानी का हाथ पकड़कर कुएँ से बाहर निकाल लिया। शर्मिष्ठा से अपमानित होने पर देवयानी ने मन में निश्चय कर लिया था कि अब वह वृषपर्वा के राज्य में अपने पिता जी के पास वापस नहीं जायेगी। वहाँ जाने से बेहतर है कि कहीं और ही जंगल में चली जाये। उसने ययाति से अनुरोधपूर्ण स्वर में कहा- "मालूम नहीं, आप कौन हैं? पर ऐसा लगता है कि आप बड़े शक्तिशाली, यशस्वी और चरित्रवान हैं। आप कोई भी हों, मेरा दाहिना हाथ आप ग्रहण कर चुके हैं, आपको मैंने अपना पति मान लिया है। आप मुझे स्वीकार करें!" ययाति ने उत्तर दिया, ‘हे तरुणी! तुम ब्राह्मणी हो और शुक्राचार्य की बेटी हो, जो संसार-भर के आचार्य होने योग्य हैं। मैं ठहरा साधारण क्षत्रिय! मैं तुमसे कैसे ब्याह कर सकता हूँ? अतः देवी, मुझे क्षमा करो और तुम अपने घर चली जाओ।" यह कहकर राजा ययाति देवयानी से विदा होकर चल दिये। उस जमाने में ऊँचे कुल का कोई पुरुष निचले कुल की कन्या से विवाह कर लेता तो उसे 'अनुलोम विवाह' कहते थे। निचले कुल के पुरुष के साथ ऊँचे कुल की कन्या का विवाह 'प्रतिलोम' कहा जाता था। प्रतिलोम विवाह मना किया गया था; क्योंकि स्त्री के कुल को कलंक न लगने देना उन दिनों जरूरी समझा जाता था। यही कारण था कि ययाति ने देवयानी की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। ययाति के चले जाने पर देवयानी वहीं कुएँ के पास साँप की फुफकार की भाँति आहें भरती और सिसकियाँ लेती हुई खड़ी रही। शर्मिष्ठा की बातों ने उसके हृदय को छेद डाला था, वह घर नहीं जाना चाहती थी। इधर जब देवयानी देर तक वापस न आई तो शुक्राचार्य घबराये। उन्होंने फौरन अपनी सेविका को देवयानी की तलाश में भेज दिया। सेविका अपनी कुछ सहेलियों को साथ लिए उस जंगल में गई जहाँ देवयानी अपनी सखियों के साथ खेलने गई थी। वहाँ एक पेड़ के नीचे देवयानी को खड़े देखा। उसकी आँखें रोते रहने के कारण लाल हो गई थीं। मुख मलिन था और क्रोध के कारण उसके होंठ काँप रहे थे। देवयानी का यह हाल देखकर सेविका घबरा गई और बड़ी आतुरता से पूछा कि क्या बात है? देवयानी के मुख से मानो चिनगारियाँ निकलीं! उसने कहा- "पिता जी से जाकर कहना कि उनकी बेटी अब राजा वृषवर्मा के राज्य में कदम नहीं रखेगी।" देवयानी का यह हाल जानकर शुक्राचार्य बड़े दुःखी हुए। वह बेटी के पास दौड़े आये और उसे गले से लगा लिया। दोनों खूब रोये। थोड़ी देर बाद जब शुक्राचार्य शांत हुए तो देवयानी को बड़े प्यार से कोमल स्वर में समझाते हुए बोले- ‘‘बेटा, लोग अपने ही किये का फल भोगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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