महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
54.राजदूत संजय
संजय ने कहा- "युधिष्ठिर! धृतराष्ट्र के पुत्र निरे मूर्ख हैं। वे न पिता की बात पर ध्यान देते हैं, न भीष्म की कुछ सुनते हैं। वे तो अपनी ही मूर्खता की धुन में मस्त हैं। फिर भी आपको उत्तेजित न होना चाहिए। आप सदा से ही न्याय एवं धर्म पर स्थिर हैं। आप युद्ध की चाह न करें। युद्ध करके जो संपत्ति प्राप्त की जाती है, उससे सुख कभी नहीं मिल सकता। बंधु-बांधवों का वध करके जो राज्य प्राप्त किया जाये उससे किसी की कुछ भी भलाई नहीं हो सकती। अत: राजन, आप युद्ध का विचार तक न करें। समुद्र तक फैले हुए विशाल राज्य को प्राप्त कर लेने के बाद भी यह किसी के वश की बात नहीं कि वह बुढ़ापे और मृत्यु पर विजय पा ले। यद्यपि दुर्योधन और उसके साथी मूर्खता करने पर तुले हुए हैं, तथापि आप तो अपना धर्म एवं अपनी क्षमाशीलता कदापि न छोड़ें। चाहे दुर्योधन आपका राज्य वापस देने से इनकार भी क्यों न कर दे तो भी आपको चाहिए कि आप न्याय के मार्ग से विमुख न हों।" संजय की बातें सुनकर युधिष्ठिर बोले- "संजय! संभव है तुम्हारी बातें सच हों और इसमें संदेह ही क्या है कि धर्म ही सबसे बड़ी चीज है। लेकिन हम अपनी ओर से तो अधर्म पर उतारू हो नहीं रहे हैं। श्रीकृष्ण धर्म का मर्म जानते हैं। वह दोनों पक्षों के लोगों के हितचिंतक हैं। वह जो सलाह देंगे वैसा ही मैं करूंगा।" श्रीकृष्ण बोले- "जहाँ एक तरफ मैं पांडवों की भलाई चाहता हूँ वहाँ यह भी चाहता हूँ कि धृतराष्ट्र के पुत्र भी सुखपूर्वक रहें। यह बड़ी जटिल समस्या है, जिसका हल करने के लिये मैं स्वयं हस्तिनापुर जाना उचित समझता हूँ। मेरी यही इच्छा है कि पांडवों के हित को किसी प्रकार की चोट पहुँचाये बिना कौरवों से संधि की जा सकती हो तो की जाये। यदि मैं इसमें कृत-कार्य हो जाऊँ तो कौरवों के भी प्राण बच जायेंगे और मुझे भी पवित्र कार्य करने का यश प्राप्त होगा। यदि शांति स्थापित हो गई तो फिर पांचों पांडव, महाराज धृतराष्ट्र की सेवा-टहल तक करने को प्रस्तुत होंगे। शांति की ही वे भी इच्छा रखते हैं परंतु साथ ही वे युद्ध के लिये भी तैयार हैं। अब यह महाराज धृतराष्ट्र का ही काम है कि दोनों बातों में से जिसे चाहें, पसंद कर लें।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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