महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
52.देवराज की भूल
इन्द्र की आज्ञा पाकर अप्सराएं विश्वरूप के सामने जाकर नाचने-गाने लगीं और वासना को उकसाने वाले हाव-भाव दिखाकर उनको मोह-जाल में फंसाने की चेष्टा करने लगीं; किंतु विश्वरूप इन बातों से जरा भी प्रभावित न हुए। वह अपने ब्रह्मचर्य व्रत पर अटल रहे। जब देवराज ने ऐसी चालों से काम न बनते देखा तो घोर पाप करने पर उतारू हो गये। उन्होंने तपस्वी विश्वरूप पर वज्र प्रहार करके उन्हे मार डाला; पर इससे उनको ब्रह्म-हत्या का महान पातक लगा। यह पापपंक किसी प्रकार धोये न धुला। तब इन्द्र ने अपने पाप का प्रायश्चित किया और अपना यह पाप सारे संसार को बांट दिया। कहा जाता है कि इन्द्र के इसी पाप के कारण धरती के कुछ हिस्से खारे हो गये हैं और स्त्रियों कुछ ऐसे शारीरिक कष्ट सहने पड़ते हैं जो पुरुषों को नहीं सहने पड़ते। जल के फेन और बुलबुले भी इसी पाप के परिणाम कहे जाते हैं। जब त्वष्टा को मालूम हुआ कि इन्द्र ने उनके पुत्र की हत्या कर दी तो उन्हें इन्द्र पर असीम क्रोध आया। उन्होंने इन्द्र से बदला लेने की ठानी और इसी कामना से होमाग्नि में मंत्र पढ़कर आहुति दी। इस होमाग्नि से वृत्रासुर नाम का एक दैत्य निकला, जो आगे चलकर इन्द्र का शत्रु बना। आग से उत्पन्न हुए वृत्रासुर को पुकारकर त्वष्टा ने कहा- "हे इन्द्ररिपु! तुम आगे बढ़ो और मेरी कामना है कि तुम्हारे हाथों पापी इन्द्र का वध हो।" त्वष्टा के आदेशानुसार वृत्रासुर इन्द्र को मारने निकल पड़ा, वृत्रासुर और इन्द्र में भारी युद्ध हुआ। वृत्रासुर का पलड़ा भारी हो रहा था। ऋषि-मुनियों को भय हुआ कि कहीं इन्द्र की पराजय न हो जायें। उन्होंने भगवान विष्णु की शरण ली। उनको अभय देकर भगवान बोले- "डरो मत। इन्द्र के वज्र में मैं प्रवेश करूंगा जिससे अंत में देवराज की जीत होगी।" ऋषि-मुनि तथा देवता भगवान विष्णु से अभय प्राप्त करके वृत्रासुर के पास गये और बोले- "वृत्र! तुम इन्द्र से मित्रता कर लो। तुम दोनों समान बलशाली हो। तुम दोनों के इस युद्ध के कारण संसार को बहुत पीड़ा पहुँच रही है। लोग बहुत तंग आ गये हैं।" "निर्दोष तपस्वियों! आप क्षमा कीजिए। इन्द्र में और मुझमें एकता कैसे हो सकती है? समान तेजवालों में कभी मित्रता होते आपने देखी है?" वृत्र ने नम्रता से कहा- "तुम इस बात में संदेह न करो। सज्जनों की मित्रता सदा स्थिर हुआ करती है , चंचल नहीं।" ऋषियों ने वृत्र को समझाया। वृत्र ने मान लिया। वह बोला- "आप लोगों की इच्छा पूर्ण हो। मैं युद्ध बंद किये देता हूँ। किंतु एक बात है। इन्द्र का मुझे कोई भरोसा नहीं। धोखा देकर कहीं वह मुझ पर घात न कर बैठे तो? अत: आप मुझे यह वरदान दें कि इन्द्र द्वारा मैं पत्थर, काठ या धातु के बने किसी शुष्क या गीले हथियारों से या बाण से न मारा जाउं। मैं न दिन में और न रात में मारा जाउं। इतना आप करेंगे तो कृपा होगी।" ऋषियों ने ‘तथास्तु’ कहकर वरदान दिया और विदा हुए। वृत्रासुर का भय ठीक ही निकला। इन्द्र की मित्रता झूठी और दिखावटी साबित हुई। मित्रता करना तो दूर, देवराज तो वृत्र को मारने की ही ताक में थे। एक दिन संध्या के समय समुद्र के किनारे इन्द्र की वृत्र के साथ भेंट हो गई। देवराज ने सोचा कि असुर को मारने का यही ठीक समय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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