महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
49.मंत्रणा
सब मित्र-राजाओं को सेना इकट्ठी करने का संदेश भेज दिया गया। पांडवों के पक्ष में राजा लोग अपनी-अपनी सेना सज्जित करने लगे। इधर ये तैयारियां होने लगीं, उधर दुर्योधन आदि भी चुपचाप बैठे नहीं रहे। वे भी युद्ध की तैयारियों में जी-जान से लग गये। उन्होंने अपने मित्रों के यहाँ दूतों द्वारा संदेश भेजे कि सेनाएं इकट्ठी की जायें। इस तरह सारा भारतवर्ष युद्ध के कोलाहल से गूंजने लगा। राजा लोग इधर-से-उधर और उधर-से-इधर दौरे करते। सैनिकों के दल-के-दल जगह-जगह आते-जाते रहते। उनकी धूम से पृथ्वी कांप जाती थी। उन दिनों भी युद्ध की तैयारियां आजकल की-सी हुआ करती थीं। द्रुपदराज ने अपने पुरोहित को बुलाकर कहा- "विद्वानों में श्रेष्ठ! आप पांडवों की ओर से दूत बनकर दुर्योधन के पास जायें। पांडवों के गुणों से तो आप भली-भाँति परिचित हैं। इसी प्रकार दुर्योधन के गुण भी आपसे छिपे नहीं हैं। यह भी आप जानते हैं कि धृतराष्ट्र की सम्मति से ही पांडवों को धोखा दिया गया। विदुर ने न्याय की बात कही तो जरूर, लेकिन धृतराष्ट्र ने उनकी सुनी नहीं। राजा धृतराष्ट्र पर दुर्योधन का असर ज्यादा है। आप धृतराष्ट्र को धर्म और नीति की बातें समझायें। विदुर तो हमारे ही पक्ष में रहेंगे। इस कारण संभव है, भीष्म, द्रोण, कृप आदि मंत्रियों और योद्धाओं (सेनानायकों) में मतभेद हो जाने पर उनमें एकता होनी कठिन हो जाये। एकता अगर हुई भी तो इसमें काफी समय लग जायेगा। इस अर्से में पांडव युद्ध की काफी तैयारी कर लेंगे। उधर जब तक आप हस्तिनापुर में संधि-चर्चा करते रहेंगे, तब तक उन लोगों की तैयारियां धीमी पड़ जायेंगी। संधि की बात करने का एक यह भी फायदा होगा। यदि शांति स्थापित हो गई तो भी वह हमारे लिये अच्छा ही होगा। यद्यपि मुझे ऐसी आशा नहीं है कि दुर्योधन समझौता करने पर राजी होगा। फिर भी समझौते की बात करने के लिये हमारे राजदूत का हस्तिनापुर जाना हमारे लिये लाभप्रद ही होगा।" शांति की वास्तविक इच्छा रखते हुए समझौते का प्रयत्न करना,पर साथ ही युद्ध की भी तैयारियां करते रहना; उधर शत्रु के पक्ष के लोगों में शांति की बातचीत के ही द्वारा फूट डालने की कोशिश करना आदि आजकल के कूटनीतिक तौर-तरीके उन दिनों भी प्रचलित थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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