महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
4.कच और देवयानी
असुरों को जब पता चला कि देवगुरु बृहस्पति का पुत्र कच शुक्राचार्य का शिष्य हो गया है तो उनको भय हुआ कि कहीं शुक्राचार्य से वह संजीवनी विद्या न सीख ले। अतः उन्होंने कच को मार डालने का निश्चय किया। एक दिन कच जंगल में आचार्य की गौएं चरा रहा था कि असुर उस पर टूट पड़े और उसके टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों को खिला दिया। शाम हुई तो गौएं अकेली घर लौटीं। जब देवयानी ने देखा कि गायों के साथ कच नहीं है तो उसके मन में शंका पैदा हो गई। उसका दिल धड़कने लगा। वह पिता के पास दौड़ी गई और बोली- "पिता जी, सूरज डूब गया। गाएं अकेली वापस आ गईं। आपका अग्निहोत्र भी समाप्त हो गया। पर फिर भी, न जाने क्यों, कच अभी तक नहीं लौटा। मुझे भय है कि जरूर उस पर कोई-न-कोई विपत्ति आ गई होगी। उसके बिना मैं कैसे जिऊंगी?" कहते-कहते देवयानी की आंखें भर आईं। अपनी प्यारी बेटी का कष्ट शुक्राचार्य से नहीं देखा गया। उन्होंने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया और मृत कच का नाम पुकारकर बोले- "आओ, कच! मेरे प्रिय शिष्य कच, आओ!" संजीवनी मंत्र की शक्ति ऐसी थी कि शुक्राचार्य के पुकारते ही मरे हुए कच के शरीर के टुकड़े कुत्तों के पेट फाड़कर निकल आये और जुड़ गये। कच जीवित हो उठा और गुरु के सामने हाथ जोड़कर आ खड़ा हुआ। उसके मुख पर दिव्य आनन्द की झलक थी। देवयानी ने पूछा- "क्यों कच! क्या हुआ था? किसलिये इतनी देर हुई?’’ कच ने सरल भाव से उत्तर दिया- "जंगल में गाएं चराने के बाद लकड़ी का गट्ठा सिर पर रक्खे मैं आ रहा था कि जरा थकावट महसूस हुई। एक बरगद के पेड़ की छाया में जरा देर विश्राम करने बैठ गया। गाएं भी पेड़ की ठंडी छांह में खड़ी हो गईं। इतने में कुछ असुरों ने आकर पूछा- ‘तुम कौन हो?’ "मैंने उत्तर दिया- ‘मैं बृहस्पति का पुत्र कच हूँ।’ इस पर उन्होंने तुरन्त मुझ पर तलवार का वार किया और मुझे मार डाला। न जाने कैसे फिर मैं जीवित हो गया हूँ! बस, मैं इतना ही जानता हूँ।" कुछ दिन और बीत गये। एक बार कच देवयानी के लिए फूल लाने जंगल गया। असुरों ने वहीं उसे घेर लिया और खत्म कर दिया और उसके शरीर को पीसकर समुद्र में बहा दिया। इधर देवयानी कच की बाट जोह रही थी। शाम होने के बाद भी जब कच न लौटा, तो घबराकर उसने अपने पिता से कहा। शुक्राचार्य ने पहले की भाँति संजीवनी मंत्र का प्रयोग किया। कच समुद्र के पानी से जीवित निकल आया और सारी बातें देवयानी को कह सुनाईं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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