महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
40.कृष्ण की भूख
कृष्ण बोले- "मैं यहाँ भूख से तड़प रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझ रही है। जरा लाओ तो अपना अक्षयपात्र। देखें कि उसमें कुछ है भी या नहीं।" द्रौपदी हड़बड़ाकर बरतन ले आई। उसके एक छोर पर अन्न का एक कण और साग की पत्ती लगी थी। श्रीकृष्ण ने उसे लेकर मुंह में डालते हुए मन में कहा- "जो सारे विश्व में व्याप्त है, सारा विश्व ही जिसका रुप है यह उस हरि का भोजन हो; इससे उसकी भूख मिट जाये और वह प्रसन्न हो जाये।" द्रौपदी तो यह देखकर लज्जा से सिकुड़-सी गई। सोचने लगी- "कैसी हूँ कि मैंने ठीक से बरतन भी न धोया। इसलिए उसमें लगा अन्न-कण और साग वासुदेव को खाना पड़ा। धिक्कार है मुझे!" इस तरह अपने-आपको ही धिक्कार रही थी कि इतने में श्रीकृष्ण ने बाहर जाकर भीमसेन को कहा- "भीम, जल्दी जाकर ऋषि दुर्वासा को शिष्यों समेत भोजन के लिए बुला लाओ।" भीमसेन बड़े वेग से नदी की ओर उस स्थान पर गया जहाँ दुर्वासा आदि ब्राह्मण शिष्यों-समेत स्नान कर रहे थे। नज़दीक जाकर भीमसेन देखता क्या है कि दुर्वासा ऋषि का सारा शिष्य-समुदाय स्नान-पूजा करके भोजन तक से निवृत हो चुका है। शिष्य दुर्वासा से कह रहे थे- "गुरुदेव! युधिष्ठिर से हम व्यर्थ में कह आये कि भोजन तैयार करके रक्खें। हमारा तो पेट ऐसा भरा हुआ है कि हमसे उठा भी नहीं जाता। इस समय तो जरा भी खाने की इच्छा नहीं है।" यह सुनकर दुर्वासा ने भीमसेन से कहा- "हम सब तो भोजन से निवृत हो चुके हैं। युधिष्ठिर से जाकर कहना कि असुविधा के लिए हमें क्षमा करें।" यह कहकर ऋषि अपने शिष्यों-सहित वहाँ से रवाना हो गये। सारा विश्व भगवान श्रीकृष्ण में ही समाया हुआ है। इसलिए उनके चावल का एक कण खाने-भर से सारे ऋषियों की भूख मिट गई और वे तृप्त होकर चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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