महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
39.दुर्योधन अपमानित होता है’
यह देख दु:शासन की आंखें भर आई। रोते रोते दुर्योधन के पांव पकड़कर रुद्ध-कण्ठ से आग्रह करने लगा कि आप ऐसा न करें। भाइयों का यह करुण विलाप कर्ण से न देखा गया। वह बोला- "कुरुवंश के राजकुमारो! यह तुम्हें शोभा नहीं देता कि इस प्रकार दीनों की भाँति विलाप करो। शोक करने से तुम्हारा भला होगा? रोने-कलपने से भी कहीं कुछ काम बना है? धीरज धरो। तुम्हारे शोक करने से तुम्हारे शत्रु पांडवों को ही आनन्द होगा; और तुम्हें तो कोई फायदा होगा नहीं। पांडवों को देखो, कितने भारी अपमान उन्हें सहने पड़े थे। फिर भी उन्होंने कभी अनशन का नाम तक न लिया।" कर्ण की बातों का समर्थन करते हुए शकुनि बोला- "दुर्योधन! कर्ण की बात मानो। तुम्हें भी हमेशा उलटी ही सुझा करती है। प्राण छोड़ने की क्या बात करने लगे! जब राज्य के उपभोग करने का समय है तो तुमको उपवास करने की सूझती है। तुम्हारे सिवा और कौन इस विशाल राज्य का शासक हो सकता है तथा उसका उपभोग कर सकता है? चलो, उठो। अभी तो हस्तिनापुर चलो। अगर तुम्हें अपने किये पर पछतावा हो रहा है तो फिर चलकर पांडवों से मित्रता कर लेते हैं और राज्य उन्हें वापस देकर फिर सुखपूर्वक दिन बिताएंगे।" शकुनि की बात सुनते ही दुर्योधन मानो स्वप्न से जाग पड़ा। वह चौंक उठा। उसकी बुद्धि पर जो थोड़ा सा प्रकाश पड़ा था वह फिर लुप्त हो गया और फिर से अंधेरा छा गया। एकदम चिल्ला उठा- "पांडवों से संधि कैसे की जा सकती है? उन पर तो विजय ही पानी पड़ेगी। और मैं वह पाकर ही रहूंगा।" दुर्योधन के ये आशाजनक वचन सुनकर कर्ण बोला- "धन्य हो दुर्योधन! अब आपने सही बात कही है। आखिर मरने से फायदा क्या होगा? जीवित रहने से तो बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है।" इस प्रकार विचार करते हुए वे सब हस्तिनापुर की ओर चल पड़े। रास्ते में कर्ण ने दुर्योधन को विश्वास दिलाने की खातिर कहा- "मैं अपने खड्ग की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि तेरह बरस बाद लड़ाई में अर्जुन का जरूर वध करुंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।" इससे दुर्योधन को बड़ी सान्त्वना मिली और उसकी ग्लानि कम होने लगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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