महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
36.भीम और हनुमान
बन्दर बड़े करुण स्वर में बोला- "हे वीर! शांत हो जाओ! इतना क्रोध न करो। बुढ़ापे के कारण मुझसे हिला-डुला भी नहीं जाता। यदि मुझे लांघना तुम्हें अनुचित लगता हो तो मेरी इस पूंछ को हटाकर एक ओर कर दो और चले जाओ।" यह सुनकर भीम को बड़ी हंसी आई। उसे अपनी ताकत का बड़ा घमंड था। सोचा कि इस बन्दर की पूंछ को पकड़कर ऐसे खीचूंगा कि याद करेगा। यह सोचकर भीमसेन ने बन्दर की पूंछ एक हाथ से पकड़ ली। लेकिन आश्चर्य! भीम ने पूंछ पकड़ तो ली; पर वह उससे जरा भी हिली नहीं, उठने की तो कौन कहे! उसे बड़ा ताज्जुब होने लगा कि यह बात क्या है? उसने दोनों हाथों से पूँछ पकड़कर खूब जोर लगाया। उसकी भौंहे चढ़ गईं, आंखे निकल आईं और पसीना बह चला; किंतु पूंछ वैसी की वैसी ही धरी रही; जरा भी हिली-डुली नहीं! भीम बड़ा लज्जित हुआ। उसका गर्व चूर हो गया। उसे बड़ा विस्मय होने लगा कि मुझसे ताकतवर यह कौन है! भीम के मन में बलिष्ठों के लिए बड़ी श्रद्धा थी। वह नम्र हो गया। बोला- "मुझे क्षमा करें। आप कौन हैं? सिद्ध हैं, गन्धर्व हैं, देव हैं, कौन हैं आप? एक शिष्य के नाते पूछता हूँ। आप ही की शरण लेता हूँ।"
"वानर श्रेष्ठ! मुझसे बढ़कर भाग्यवान और कौन होगा जो मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए। अब मेरी केवल यही कामना है कि जिस आकार में आपने समुद्र लांघा था उसके भी दर्शन मैं कर लूं।" कहकर भीमसेन ने अपने बड़े भाई हनुमान को दण्डवत प्रणाम किया। भीम की बात पर मुस्कराये और अपना शरीर बढ़ाकर सारी दिशाओं में ऐसे व्याप्त हो गये मानो एक पहाड़ सामने खड़ा हो गया हो। भीम हनुमान के दैवी रूप के बारे में बहुत सुन चुका था, पर अब उसने देख भी लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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