महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
29.विपदा किस पर नहीं पड़ती ?
"जिसने हमें धोखा दिया, उसे चालाकी से मारना पाप नहीं हो सकता। शास्त्रों में कहा गया है कि एक वर्ष पूरे होने वाले कुछ व्रतों को एक दिन और रात में भी पूरा किया जा सकता है। इसके आधार पर हम भी तेरह दिन और तेरह रातें व्रत रक्खें तो तेरह बरस के वनवास की प्रतिज्ञा शास्त्रोचित ढंग से भी पूरी हो जायेगी। मुझे आपकी आज्ञा भर की देरी है। मैं तो दुर्योधन के प्राण लेने को वैसे ही उत्कंठित हो रहा हूँ जैसे सूखे झाड़–झंखाड़ को फूंक डालने के लिए आग।" भीम की इन जोशीली बातों को सुनकर युधिष्ठिर का कंठ भर आया। उन्होंने भीम को गले लगा लिया और बड़े प्रेम से उसे समझाते हुए बोले– "भैया मेरे! तेरह बरस पूरे होते ही गाण्डीवधारी अर्जुन और तुम लड़ाई में दुर्योधन का अवश्य वध करोगे, इसमें मुझे जरा भी शक नहीं है। पर अभी विचलित न होओ। उचित समय तक थोड़ा धीरज धरो। पाप के बोझ से दबे हुए दुर्योधन और उसके साथ अवश्यमेव उसका फल भोगेंगे। वे बचेंगे नही।" दोनों भाइयों में यह चर्चा हो ही रही थी कि इतने में बृहदश्व ऋषि पांडवों के आश्रम में पधारे। युधिष्ठिर ने उनकी विधिवत पूजा की और खूब आदर-सत्कार करके बड़े नम्र भाव से उनके पास बैठकर कहा- "भगवन! छली लोगों ने हमें चौपड़ के खेल में बुलाया और धोखे से हमारा राज्य और संपत्ति छीन ली। उसके फलस्वरूप मुझे और मेरे अनुपम वीर भाइयों को द्रौपदी के साथ वनवास का यह कष्ट भोगना पड़ रहा है। अर्जुन, बहुत दिन हुए, अस्त्र प्राप्त करने के लिए गया है, पर अभी तक लौटा नहीं। उसकी अनुपस्थिति में हमें ऐसा मालूम हो रहा है, मानो हमारे प्राण ही चले गये हैं। आप कृपया बतायें कि अर्जुन अस्त्र प्राप्त करके कब लौटेगा? हम उससे कब मिलेगे? इस समय तो हम दु:ख के सागर में गोते खा रहे हैं। संसार में शायद ही कोई ऐसा हुआ होगा जिसने मेरे जितना दु:ख सहा हो। मैं बड़ा ही अभागा हूँ।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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