श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी172. महाप्रभु का अदर्शन अथवा लीलासंवरण
सचमुच स्वर्गारोहण पर्व को पढ़ते-पढ़ते रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कैसा भी वज्रहृदय क्यों न हो बिना रोये न रहेगा। जब मुझ-जैसे कठोर हृदय वाले की आँखों से भी अश्रुविन्द निकल पड़े तब फिर सहृदय पाठकों की तो बात ही क्या? इसी प्रकार जब वाल्मीकीय रामायण में, श्री राम की सुकुमारता, ब्राह्मणप्रियता, गुरुभक्ति, शूरता और पितृभक्ति की बातें पढ़ते तो हृदय भर आता है। सीता जी के प्रति उनका कैसा प्रगाढ़ प्रेम था। हाय ! जिस समय कामान्ध रावण जनकनन्दिनी को चुरा ले गया, तब उन मर्यादापुरुषोत्तम की भी मर्यादा टूट गयी। वे अकेली जानकी के पीछे विश्वब्रह्माण्ड को अपने अमोघ बाण के द्वारा भस्म करने को उद्यत हो गये। उस समय उनका प्रचण्ड क्रोध, दुर्धर्ष तेज और असहनीय रोष देखते ही बनता था। दूसरे ही क्षण वे साधारण कामियों की भाँति रो-रोकर लक्ष्मण से पूछने लगते– ‘भैया ! मैं कौन हूँ? तुम कौन हो, हम यहाँ क्यों फिर रहे हैं? सीता कौन है, हा सीते ! हा प्राणवल्लभे ! तू कहाँ चली गयी ?’ ऐसा कहते-कहते बेहोश होकर गिर पड़ते हैं। उनके अनुज ब्रह्मचारी लक्षमण जी बिना खाये-पीये और भूख-नींद का परित्याग किये छाया की तरह उनके पीछे-पीछे फिरते हैं और जहाँ श्रीराम का एक बूँद पसीना गिरता है, वहीं वे अपने कलेजे को काटकर उसका एक प्याला खून निकालकर उससे उसे स्वेद-विन्दु को धोते हैं। |