श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी164. महाप्रभु का दिव्योन्माद
श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव ! इन नामों की सुमधुर गूँज गोविन्द और स्वरूप गोस्वामी के कानों में भर गयी। वे इन नामों को सुनते-सुनते ही सो गये। किन्तु प्रभु की आँखों में नींद कहाँ, उनकी तो प्राय: सभी रातें हा नाथ ! हा प्यारे ! करते-करते ही बीतती थीं। थोड़ी देर में स्वरूप गोस्वामी की आँखें खुलीं तो उन्हें प्रभु का शब्द सुनायी नहीं दिया। सन्देह होने से वे उठे, गम्भीरा में जाकर देखा, प्रभु नहीं हैं। मानो उनके हृदय में किसी ने वज्र मार दिया हो। अस्त-व्यस्तीभाव से उन्होंने दीपक जलाया। गोविन्द को जगाया। दोनों ही उस विशाल भवन के कोने-कोने में खोज करने लगे, किन्तु प्रभु का कही पता ही नहीं। सभी घबडाये-से इधर-उधर भागने लगे। गोविन्द के साथ वे सीधे मन्दिर की ओर गये वहाँ जाकर क्या देखते हैं, सिंहद्वार के समीप एक मैंले स्थान में प्रभु पड़े हैं। उनकी आकृति विचित्र हो गयी थी। उनका शरीर खूब लम्बा पडा था। हाथ-पैर तथा सभी स्थानों की सन्धियाँ बिलकुल खुल गयी थीं। |