श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी164. महाप्रभु का दिव्योन्माद
मानो किसी ने टूटी हड्डियां लेकर चर्म के खोल में भर दी हो। शरीर अस्त-व्यस्त पड़ा था। श्वास-प्रश्वास की गति एकदम बंद थी। कविराज गोस्वामी ने वर्णन किया है– प्रभु पड़ि आछेन दीर्घ हात पांच छय। अर्थ स्पष्ट है, भक्तों ने समझा प्रभु के प्राण शरीर छोड़कर चले गये। तब स्वरूप गोस्वामी जी जोरों से प्रभु के कानों में कृष्ण नाम की ध्वनि की। उस सुमधुर और कर्णप्रिय ध्वनि को सुनकर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य-ज्ञान सा होने लगा। वे एक साथ ही चौंककर ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहते हुए उठ बैठे। प्रभु के उठने पर धीरे-धीरे अस्थियों की संन्धियाँ अपने-आप जुडने लगीं। श्री गोस्वामी रघुनाथदास जी वहीं थे, उन्होंने अपनी आँखों से प्रभु की यह दशा देखी होगी। उन्होंने अपने ‘चैतन्यस्वतकल्पवृक्ष’ नामक ग्रन्थ में इस घटना का यों वर्णन किया है– क्वचिन्मिश्रावासे व्रजपतिसुतस्योरुविरहा- किसी समय काशी मिश्र के भवन में श्रीकृष्ण विरह उत्पन्न होने पर प्रभु की सन्धियाँ ढीली पड़ जाने से हाथ-पैर लंबे हो गये थे। पृथ्वी पर काकुस्वर से, गद्गद वचनों से जोरों के साथ रुदन करते-करते लोट-पोट होने लगे, वे ही श्री गौरांग हमारे हृदय में उदित होकर हमें मद में मतवाला बना रहे हैं। उन हृदय में उदित होकर मतवाले बनाने वाले श्री गौरांग के और मदमत्त बने श्री रघुनाथदास जी के चरणों में हमारा साष्टांग प्रणाम है! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रभु पांच-छ: हाथ लम्बे पड़े हुए थे, देह अचेतन थी, नासिका से श्वास नहीं बह रहा था, एक-एक हाथ पैर तीन-तीन हाथ लम्बे हो गये थे। हड्डियों की सभी सन्धियाँ अलग-अलग हो गयी थीं, केवल ऊपर चर्म-ही-चर्म चढ़ा हुआ था। हाथ, पैर, ग्रीवा और कटि-हड्डियों के जोड़ एक-एक वितस्ति अलग-अलग हो गये थे। ऊपर चर्ममात्र था, सन्धि लम्बी हो गयी थी। महाप्रभु की ऐसी दशा देखकर सभी भक्त दु:खी हो गये। उनके मुख से लार और फेन बह रहा था, नेत्र चढे हुए थे। उनकी ऐसी दशा देखकर भक्तों के प्राण शरीर को परित्याग करके जाने लगे।