श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी161. श्री रघुनाथ भट्ट को प्रभु की आज्ञा
प्रभु की ऐसी दीनतायुक्त बातें सुनकर गोविन्द ने लज्जित भाव से कहा– ‘प्रभो ! आपकी रक्षा करने वाला मैं कौन हूँ, जगन्नाथ जी ने ही आपकी रक्षा की है। मैं भला किस योग्य हूँ?’ महाप्रभु फिर आगे नहीं गये और लौटकर उन्होंने यह बात अपने सभी विरक्त भक्तों के सम्मुख कही और गोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तभी आपने गोविन्द से कहा– ‘गोविन्द ! तुम सदा मेरे साथ ही रहा करो। मुझे अब शरीर का होश नहीं रहता। पता नहीं, किस समय मैं क्या अनर्थ कर बैठूँ।’ काशीवासी पण्डित तपन मिश्र को तो पाठक भूले ही न होंगे। उनके पुत्र रघुनाथ भट्टाचार्य प्रभु के अनन्य सेवक थे। प्रभु जब काशी पधारे थे तभी इन्होंने प्रभु को आत्म समर्पण कर दिया था। प्रभु के पुरी आ जाने पर इनकी पुन: प्रभु के पादपद्मों के दर्शनों की इच्छा हुई। अत: ये काशी जी से गौड़ होते हुए नीलाचंल की ओर चल दिये। रास्ते इन्हें रामदास विश्वास नामक एक कायस्थ महाशय मिले। ये गोड़ेश्वर के दरबार में मुनीम थे। रामानन्दी सम्प्रदाय के थे, वैसे बड़े भारी पण्डित, विनयी और ब्रह्मण्य थे। वे भी जगन्नाथ जी के दर्शनों को जा रहे थे। रघुनाथ जी को देखकर उन्होंने प्रणाम किया और इतने योग्य साथी को पाकर वे परम प्रसन्न हुए। उन्होंने रघुनाथ जी की पुटली जबरदस्ती ले ली तथा और भी उनकी विविध प्रकार से सेवा करने लगे। रघुनाथ जी इससे कुछ संकुचित होते और कहते– ‘आप इतने बड़े पण्डित हैं, इतने भारी प्रतिष्ठित पुरुष हैं, आपको मेरी इस प्रकार सेवा करना शोभा नहीं देता।’ वे विनीतभाव से उत्तर देते– ‘मैं नीच, अधम, छोटी जाति में उत्पन्न होने वाला भला आपकी सेवा कर ही क्या सकता हूँ फिर भी जो मुझसे हो सकती है, उससे आप मुझे वंचित न रखिये। साधु-ब्राह्मणों की सेवा करना तो हमारा कर्तव्य है। हम तो इसके दास हैं।’ इस प्रकार दोनों ही बडे आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक पुरी पहुँचे। |