श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी158. भक्त कालिदास पर प्रभु की परम कृपा
झाडू भक्त ने उल्लास के साथ कहा- ‘हाँ, हाँ, उन आमों को अवश्य लाओ। उनके पाने से तो श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति होगी। पति की आज्ञा पाते ही पतिपरायणा पत्नी उन आमों की टोकरी को उठा लायी। झाड़ू ने मन से आमों का भगवत अर्पण किया और फिर उन्हें प्रसाद समझकर पाने लगे। उनके चूस लेने पर जो बचता उसे उनकी पतिव्रता स्त्री चूसती जाती और गुठली तािा छिलकों को बाहर की ओर फेंकती जाती। पीछे छिपे हुए कालिदास जी उन गुठलियों को उठा उठाकर चूसते और उनमें वे अमृत के समान स्वाद का अनुभव करतें इस प्रकार भक्तों के अच्छिष्ट प्रसाद को पाकर अपने को कृतार्थ समझकर वे बहुत रात्रि बीते अपने घर आये। इस प्रकार की इनकी भक्तों के प्रति अनन्य श्रद्धा थी। एक बार गौड़ीय भक्तों के साथ वे भी नीलाचंल में प्रभु के दर्शन के लिये पधारे। इनके ऐसे भक्ति भाव की बातें सुनकर प्रभु इनसे अत्यणिक सन्तुष्ट हुए ओर इन्हें बड़े ही सम्मान के साथ अपने पास रखा। महाप्रभु जब जगन्नाथ जी के मन्दिर में दर्शनों के लिये जाते, तब सिंहासन के समीप वे एक गड़ढे में पैर धोया करते थे। गोविन्द उनके साथ ही जाता था। प्रभु ने कठोर आज्ञा दे रखी थी कि यहाँ हमारे पादोदक को कोई भी पान न करे इसलिये वहाँ जाकर प्रभु के पादोदक पान करने का साहस किसी को भी नहीं होता था। किन्तु भक्तों का पादोदक और भक्तभुक्त अन्न ही जिनके साधन का एकमात्र बल है, वे कालिदास जी भला कब मानने वाले थे। वे निर्भीक होकर प्रभु के समीप चले गये और उनके पैर धोये हुए जल को पीने लगे। एक चुल्लू पीया, प्रभु चुपचाप उनके मुख की ओर देखते रहे। दूसरा चुल्लू पीया, प्रभु थोड़े से मुसकराये, तीसरा चुल्लू पीया, प्रभु जोरों से हँस पड़े। चौथे चुल्लू के लिये ज्यों ही उन्होंने हाथ बढ़ाया त्यों ही प्रभु ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगे- ‘बस, बहुत हुआ। अब फिर कभी ऐसा न करना।’ इस प्रकार अपने को बड़भागी समझते हुए कालिदास जी जगन्नाथ जी के दर्शन करते हुए प्रभु के साथ-ही-साथ अपने निवास स्थान पर आये। महाप्रभु ने भिक्षा पायी और भिक्षा पाने के अनन्तर संकेत से गोविन्द को आज्ञा दे दी कि कालिदास जी को हमारा उच्छिष्ट प्रसाद दे दो। प्रभु का संकेत समझकर गोविन्द ने कालिदास जी को प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद दे दिया। पादोदक के अनन्तर प्रभु के अधरामृत सिंचित उच्छिष्ठ प्रसाद को पाकर उनकी प्रसन्नता का वारावार नहीं रहा। धन्य है ऐसे भक्तिभाव को और धन्य है उनके ऐसे देवदुर्लभ सौभाग्य को, जिनके लिये महाप्रभु ने स्वयं उच्छिष्ट प्रसाद देने की आज्ञा प्रदान की। |