श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी150. छोटे हरिदास को स्त्री-दर्शन का दण्ड
मैं तुमसे हृदय के रहस्य को बतलाता हूँ जिसकी ऋषि-मुनियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, उसे सुनो; (विरक्त पुरुषों को) स्त्रियों की सन्निधि में नहीं रहना चाहिये, नहीं रहना चाहिये, क्योंकि हरिणी के समान सुन्दर नेत्रों वाली कामिनी अपने तीक्ष्ण कटाक्ष-बाणों से बड़े-बड़े महापुरुषों के चित्त को भी, जो शान्ति के कवच से ढँका हुआ है, शीघ्र ही अपनी ओर खींच लेती है। इसलिये भैया ! मेरे जाने, वह भूखों मर ही क्यों न जाय अब मैं जो निश्चय कर चुका उससे हटूँगा नहीं। 'स्वरूप जी उदास मन से लौट गये। उन्होंने सोचा- 'प्रभु परमानन्दपुरी महाराज का बहुत आदर करते हैं, यदि पुरी उनसे आग्रह करें तो सम्भवतया वे मान भी जाये। 'यह सोचकर वे पुरी महाराज के पास गये। सभी भक्तों के आग्रह करने पर पुरी महाराज प्रभु से जाकर कहने के लिये राजी हो गये। वे अपनी कुटिया में से निकलकर प्रभु के शयन स्थान में गये। पुरी को अपने यहाँ आते देखकर प्रभु उठकर खड़े हो गये और उनकी यथा विधि अभ्यर्चना करके उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। बातों-ही-बातों में पुरी जी ने हरिदास का प्रसंग छेड़ दिया और कहने लगे- 'प्रभो ! इन अल्प शक्ति वाले जीवों के साथ ऐसी कड़ाई ठीक नहीं है। बस, बहुत हो गया, अब सबको पता चल गया, अब कोई भूल से भी ऐसा व्यवहार न करेगा। अब आप उसे क्षमा कर दीजिये और अपने पास बुलाकर उसे अन्न-जल ग्रहण करने की आज्ञा दे दीजिये।' पता नहीं प्रभु ने उसका और भी पहले कोई ऐसा निन्द्य आचरण देखा था या उसके बहाने सभी भक्तों को घोर वैराग्य की शिक्षा देना चाहते थे। हमारी समझ में आ ही क्या सकता है ! महाप्रभु पुरी के कहने पर भी राजी नहीं हुए। उन्होंने उसी प्रकार दृढ़ता के स्वर में कहा- 'भगवान ! आप मेरे पूज्य हैं, आपकी उचित-अनुचित सभी प्रकार की आज्ञाओं का पालन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, किन्तु न जाने क्यों, इस बात को मेरा हृदय स्वीकार नहीं करता। आप इस सम्बन्ध में मुझसे कुछ भी न कहें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सु. र. भां. 365/72