श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी148. श्री रघुनाथदास जी का गृह त्याग
पिता ने मार्मिक स्वर में आह भरते हुए कहा- 'रघु को दूसरे प्रकार का पागलपन है। वह संसारी बन्धन को छिन्न-भिन्न करना चाहता है। रस्सी से बाँधने से यह नहीं रुकने का। जिसे कुबेर के समान अतुल सम्पत्ति, राजा के समान अपार सुख, अप्सरा के समान सुन्दर स्त्री और भाग्यहीनों को कभी प्राप्त न होने वाला अतुलनीय ऐश्वर्य ही जब घर में बांध ने को समर्थ नहीं है, उसे बेचारी रस्सी कितने दिनों बांधकर रख सकती है?' माता अपने पति के उत्तर से और पुत्र के पागलपन से अत्यन्त ही दु:खी हुई। पिता भलीभाँति रघुनाथ पर दृष्टि रखने लगे। उन्हीं दिनों श्रीपाद नित्यानन्द जी ग्रामों में घूम-घूमकर संकीर्तन की धूम मचा रहे थे। वे चैतन्य प्रेम में पागल बने अपने सैकड़ों भक्तों को साथ लिये इधर-उधर घूम रहे थे। उनके उद्दण्ड नृत्य को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते, चारों ओर उनके यश और कीर्ति की धूम मच गयी। हजारों, लाखों मनुष्य नित्यानन्द प्रभु के दर्शनों के लिये आने लगे। उन दिनों गौड़ देश में 'निताई' के नाम की धूम थी। अच्छे-अच्छे सेठ-साहूकार और भूम्यधिपति इनके चरणों में आकर लोटते और ये उनके मस्तकों पर निर्भय होकर अपना चरण रखते, वे कृतकृत्य होकर लौट जाते। लाखों रूपये भेंट में आने लगे। नित्यानन्द जी खूब उदारतापूर्वक उन्हें भक्तों में बांटने लगे और सत्कर्मों में द्रव्य को व्यय करने लगे। पानीहाटी संकीर्तन का प्रधान केन्द्र बना हुआ था। वहाँ के राघव पण्डित महाप्रभु तथा नित्यानन्द जी के अनन्य भक्त थे। नित्यानन्द जी उन्हीं के यहाँ अधिक ठहरते थे। रघुनाथ जी जब नित्यानन्द जी का समाचार सुना तो वे पिता की अनुमति लेकर बीसों सेवकों के साथ पानीहाटी में उनके दर्शनों के लिये चल पड़े। उन्होंने दूर से ही गंगा जी के किनारे बहुत-से भक्तों से घिरे हुए देवराज इन्द्र के समान देदीप्यमान उच्चासन पर बैठे हुए नित्यानन्द जी को देखा। उन्हें देखते ही इन्होंने भूमि पर लोटकर साष्टांग प्रणाम किया। किसी भक्त ने कहा- श्रीपाद! हिरण्य मजूमदार के कुँवर शाह रघुनाथदास जी आये हैं, वे प्रणाम कर रहे हैं।' |