श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
144.श्री प्रकाशानन्द जी का आत्मसमर्पण
लालन-पालन जन्य कुछ सूक्ष्म द्वैतांश शेष रह ही जाता है। हाँ, कान्ता भाव में द्वैत का नाम नहीं। पत्नी अपने मन को ही पति के मन में नहीं मिला देती है, किन्तु वह हृदय से हृदय को मिलकर उसकी सभी चेष्टाएं, सभी क्रियाएँ केवल पति के ही सुख के निमित्त होती हैं। उसके लिये अपना अस्तित्व रहता ही नहीं। वहाँ न स्वामी-सेवक-भाव है, न अंशांशी-भाव। वहाँ तो अद्वैत-भाव है। पत्नी अपने लिये सुख नहीं चाहती। उसे अपने सुख में प्रसन्नता नहीं होती। उसकी प्रसन्नता तो प्रियतम की प्रसन्नता में है। प्यारा प्रसन्न है, इसलिये उसे भी प्रसन्न रहना चाहिये, क्योंकि प्यारे से पृथक उसका अस्तित्व ही नहीं। तब प्यारे से विरुद्ध उसकी कोई चेष्टा हो ही कैसे सकती है? इसी का नाम मधुर भाव है, यही सर्वश्रेष्ठ भाव है, इसमें भावान्वित हुए पुरुष की सभी क्रियाएँ बंद हो जाती हैं। उसका अपनापन एकदम नष्ट हो जाता है। उसका शरीर यन्त्र की तरह अपने-आप ही थोड़ी -बहुत चेष्टा करता रहता है। ऐसा भाव किसी भाग्यवान पुरुष को ही प्राप्त हो सकता है। लाखों में क्या करोड़ो में कोई एक इस भाग वाले पुरुष होते हैं, फिर उनके दर्शन तो किसी परम सौभाग्याशाली पुरुष को ही प्राप्त हो सकते हैं। आप तो श्रीकृष्ण के निजजन हैं। आपके लिये कौन-सा भाव दुर्लभ है? भगवान ने आपको तो अपना कहकर वरण कर लिया है। जिसे वे अपना कहकर स्वीकार कर लेते हैं वही इस भाव में दीक्षित हो सकता है। योग- यज्ञ और जप-तप करके ही कोई अपने को इस भाव में दीक्षित होने का अधिकारी समझ बैठे तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा ही कही जा सकती है।'
अत्यन्त ही दीन भाव से प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'प्रभो! आज मेरा पुनर्जन्म हुआ। मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ कि भगवान ने मुझे अपनी शरण में ले लिया। अब मेरे पुनर्जन्म का नाम रख दीजिये और मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं कहाँ रहूँ और क्या करूँ?'
प्रभु ने प्रेमपूर्वक कहा- 'प्रबोधानन्द जी! आपको बोध तो पहले से ही था, अब प्रभु की परम कृपा होने से आपको प्रकर्ष बोध हुआ है। इसलिये आज से प्रकाशानन्द जी के स्थान में आपका नाम प्रबोधानन्द जी हुआ रहने का एक ही ठाम है, 'श्री वृन्दावन धाम, 'और करने का एक ही काम है' श्री वृन्दावन विहारी का अहर्निश नाम-संकीर्तन। 'श्रीकृष्ण-कृष्ण रटिये और श्री वृन्दावन में बसिये। इसी में परम कल्याण है! प्राणि मात्र के उद्धार का यही सर्वश्रेष्ठ उपाय है।'
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