श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी144.श्री प्रकाशानन्द जी का आत्मसमर्पण
प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'प्रभो! शास्त्रों का सिद्धान्त हैं, द्वितीयाद वै भयं भवति' अर्थात दूसरे से तो सदा भय ही होता है, इसका क्या अभिप्राय है? जब तक सेव्य-सेवक-भाव है, तब तक द्वैत है और द्वैत भय का कारण है, फिर किस भाव से शरण में जाऊँ?' प्रभु ने कहा- 'भगवन! आप ध्यान पूर्वक इस बात पर विचार करें। वास्तव में यह बात ठीक है कि द्वैत में सदा भय ही होता है। बिना अद्वैतभावना के शान्ति नहीं, किन्तु आप सोचिये- आंश में और अंशी में, सेव्य में और सेवक में, सखा और सखा में, पिता में और पुत्र में तथा पतिे में और पत्नी में क्या द्वैधीभाव रहता है? जहाँ द्वैत है वहाँ प्रेम कहाँ? प्रेम तो एक होने पर ही होता है। जिसे हम अपना कहकर स्वीकार कर चुके है। दूसरा रह ही नहीं जाता। व्यवहार में भी देखा जाता है, जब कोई गुप्त बात कहनी होती है, तो कहने वाला पास में बैठे हुए आदमियों की ओर शंकित दृष्टि देखता है। तब सुनने वाला कहता है- 'तुम निश्चिन्त होकर कहो, यहाँ कोई 'दूसरा' नहीं हैं। अर्थात सभी अपने हैं।' इसलिये अपनापन स्थापित हो जाने पर फिर भय का क्या काम? फिर तो दिन दूना आनन्द ही बढ़ता जाता है। सम्बन्ध पाँच ही प्रकार से हो सकता है- अशं-अंशी-सम्बन्ध, स्वामी-सेवक-सम्बन्ध, सख्त-सम्बन्ध, पिता-पुत्र का सम्बन्ध और पति-पत्नी का सम्बन्ध। इन्हें ही क्रम से शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और कान्ताभाव कहते हैं। इनमें से भगवान के साथ कोई भी सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर फिर वे दूसरे नहीं रहते। अपने ही हो जाते हैं, द्वैत न रहकर अद्वैत बन जाते हैं। शान्तभाव में ऐश्वर्य की भावना रहने से कुछ अद्वैत का अंश शेष रह जाता है। दास्यभाव में निरन्तर सेवक की भावना रखने से शांत की अपेक्षा कुछ द्वैतभाव कम हो जाता है, शख्य दास की अपेक्षा कुछ कम हो जाता है, किन्तु कुछ द्वैत तो सख्य में भी बना ही रहता है। सखा अपने सखा से यह इच्छा तो रखता ही है कि यह भी हमसे स्नहे करें। सख्य की अपेक्षा वात्सल्य भाव में द्वैत बहुत ही कम हो जाता है। क्योंकि असली पिता अपने में और पुत्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं समझता। पुत्र पिता का आत्मा ही है। किन्तु फिर भी द्वैधी भाव समूल नष्ट नहीं होता। |