श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी138. महाप्रभु वल्लभाचार्य और महाप्रभु गौरांगदेव
अत्यन्त ही सरलता के साथ आचार्य ने कहा- 'भगवन! आप संन्यासी होने के कारण आश्रम गुरु हैं, फिर मेरे सौभाग्य से आप अतिथि होकर मेरी कुटिया में पधारे हैं। शास्त्रों में चाण्डाल अतिथि को भी नारायण समझकर पूजा करने का विधान है, फिर आप तो साक्षात नारायण के स्वरूप ही हैं। आपकी पादचार्य से मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।' महाप्रभु वैसे ही बड़े सरल और संकोची स्वभाव के थे, बड़ों के सामने तो उनकी शीलता, लज्जा और सरलता अत्यन्त ही बढ़ जाती। अपनी स्वाभाविक नम्रता से उन्होंने कहा- 'आचार्य देव! मैं आज आपके यहाँ भगवान का प्रसाद पाकर अत्यन्त ही संतुष्ट हुआ। मेरा परम सौभाग्य है जो यहाँ आकर आपके आतिथ्य ग्रहण करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हो सका। मुझे तो तीर्थों का फल प्रत्यक्ष मिल गया। आप-जैसे महापुरुषों के दर्शन ही साधारण लोगों को दुर्लभ हैं, फिर जिसे आपकी कृपा की प्राप्ति हो गयी है, उसके सौभाग्य का तो कहना ही क्या हैं!' इस प्रकार दोनों ही महापुरुष परस्पर एक-दूसरे की स्तुति कर रहे थे। अनन्तर महाप्रभु की आज्ञा से आचार्य प्रसाद पाने चले गये। प्रसाद पाकर वे फिर प्रभु के पास आकर श्रीकृष्ण-कथा आदि करने लगे। |