श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी124. नित्यानन्द जी का गृहस्थाश्रम में प्रवेश
नित्यानन्द जी की शिकायत महाप्रभु तक पहुँची थी। प्रभु के एक सहपाठी पण्डित ने नित्यानन्द जी की उनसे भरपेट निन्दा की; किन्तु महाप्रभु ने इस पर विश्वास नहीं किया। गौड़-देश से दूसरी बार भक्त भी पहले की ही भाँति रथयात्रा के समय महाप्रभु के दर्शनों को गये। उस समय भी नित्यानन्द जी के सम्बन्ध में बहुत-सी बातें होती रहीं। श्रीवास पण्डित ने चलते समय कह दिया कि नित्यानन्द जी अबोधावस्था में ही घर से निकल आये थे। उन्होंने स्वेच्छा से संन्यास नहीं लिया था। महाप्रभु ने कह दिया- 'उन्होंने चाहे स्वेच्छा से संन्यास लिया हो या परेच्छा से, उनके लिये कोई विधि निषेध नहीं है।' रोज ही लोगों के मुख से भाँति-भाँति की बातें सुनकर नित्यानन्द जी को भी कुछ क्षोभ हुआ। उन्होंने अपनी मनोव्यथा शचीमाता से कही। माता ने आज्ञा दी कि नीलाचल जाकर निमाई से मिल आ, वह जैसा कहे वैसा करना। माता की अनुमति से नित्यानन्द जी अपने दस-पांच अन्तरंग भक्तों को साथ लेकर नीलाचल पहुँचे। उन्हें महाप्रभु के सम्मुख जाने में बड़ी लज्जा मालूम पड़ती थी। इसलिये संकोचवश वे महाप्रभु के स्थान पर नहीं गये। बाहर ही एक बागमें बैठे हुए वे पश्चात्ताप के आंसू बहा रहे थे कि उसी समय समाचार पाते भी प्रभु वहाँ दौड़े आये और वे नित्यानन्द जी की प्रशंसा करते हुए उनकी प्रदक्षिणा करने लगे। प्रभु को प्रदक्षिणा करते देखकर नित्यानन्द जी जल्दी से प्रभु को प्रणाम करने के लिये उठे, किन्तु प्रेम के आवेश में वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उनकी मूर्च्छित दशा में ही प्रभु ने उनकी चरण-धूलि को अपने मस्तक पर चढ़ाया। महाप्रभु के पश्चात् सभी भक्तों ने नित्यानन्द जी की चरण-रज मस्तक पर चढ़ायी। प्रभु उनका पैर पकड़कर बैठ गये। बाह्यज्ञान होने पर नित्यानन्द जी उठे; वे कुछ कहना ही चाहते थे किन्तु प्रेम के आवेश में कुछ भी न कह सके, उनका सिर आप-से-आप ही लुढ़ककर महाप्रभु की गोदी में गिर पड़ा। महाप्रभु उनके मस्तक को बार-बार सूंघने लगे और अपने कर-कमलों से उनके पुलकित हुए अंगों पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगे। दोनों भाई बड़ी देर तक इसी प्रकार प्रेम में बेसुध बने उसी स्थान पर बैठे रहे। फिर महाप्रभु उन्हें हाथ पकड़कर अपने यहाँ ले गये और वे अब पुरी में ही रहने लगे। |