श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी118. श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा
प्रिय सोऽयं कृष्ण: सहचरि कुरुक्षेत्रमिलित कुरुक्षेत्र में पुन: मिलने पर राधिका जी कह रही हैं- ‘हे सहचरि ! मेरे वे ही प्राणनाथ हृदयमण श्रीकृष्ण मुझे कुरुक्षेत्र में मिल हैं, मैं भी वही वृषभानुनन्दिनी कीर्तिसुता राधा हूँ और दोनों के परस्पर मिलने से संगमसुख भी प्राप्त हुआ। किन्तु प्यारी सखी ! हृदय की सच्ची बात कहती हूँ, जिस वन में मुरली मनोहर की पंचम स्वर में बजती हुई मुरली की मन मोहक तान सुनी थी उस कालिन्दी कूलवाले वन के लिये मेरा मनमधुप अत्यन्त ही लालायति हो रहा है।’ यह भाव प्रभु के मनोगत भाव के एकदम अनुरूप ही था। इस प्रकार श्रीराधिका जी के अनेक भावों को प्रकट करते हुए प्रभु रथ के आगे आगे नृत्य करते हुए चलने लगे। उनके आज के नृत्य में जगत को मोहित करने वाली शक्ति थी। नृत्य करते-करते एक बार महाप्रभु महाराज प्रतापरुद्र के बिलकुल ही समीप पहुँच गये। महाराज ने इस सुअवसर को पाकर प्रभु के चरण पकड़ लिये। उसी समय प्रभु को नाह्यज्ञान हुआ और यह कहते हुए कि ‘राजा ने मेरा स्पर्श कर लिया, मेरे जीवन को धिक्कार है।’ वे वहाँ से आगे चले गये। इससे राजा को बड़ा क्षोभ हुआ। सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा- ‘आप क्षोभ न करें। यह तो प्रभु की आपके ऊपर असीम कृपा ही है, प्रभु आपको कृतार्थ करने ही यहाँ तक आये थे।’ इस बात से महाराज को सन्तोष हो गया। |