श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी115. भक्तों के साथ महाप्रभु की भेंट
महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके हरिदास जी उस निर्जन एकान्त स्थान में रहने लगे। महाप्रभु जगदानन्द, नित्यानन्द आदि भक्तों को साथ लेकर समुद्र स्नान निमित्त गये। प्रभु के स्नान कर लेने के अनन्तर सभी भक्तों ने समुद्र स्नान किया और सभी मिलकर भगवान के चूड़ा-दर्शन करने लगे। दर्शनों से लौटकर सभी भक्त महाप्रभु के समीप आ गये। तब तक मन्दिर से भक्तों के लिये प्रसाद भी आ गया था। महाप्रभु ने सभी को एक साथ प्रसाद पाने के लिये बैठाया और स्वयं अपने हाथों से भक्तों को परोसने लगे। महाप्रभु के परोसने का ढंग अलौकिक ही था। एक एक भक्तों के सम्मुख दो दो, चार चार मनुष्यों के खाने योग्य प्रसाद परोस देते। प्रभु के परोसे हुए प्रसाद के लिये मनाही कौन कर सकता था, इसलिये प्रभु अपने इच्छानुसार सबको यथेष्ट प्रसाद परोसने लगे। परोसने के अनन्तर प्रभु ने प्रसाद पाने की आज्ञा दी, किंतु प्रभु के बिना किसी ने पहले प्रसाद पाना स्वीकार ही नहीं किया। तब तो महाप्रभु पुरी, भारती तथा अन्य महात्माओं को साथ लेकर प्रसाद पाने के लिये बैठे। जगदानन्द, दामोदर, नित्यानन्द जी तथा गोपीनाथाचार्य आदि बहुत से भक्त सब लोगों को परोसने लगे। प्रभु ने आज अन्य दिनों की अपेक्षा बहुत अधिक प्रसाद पाया तथा भक्तों को भी आग्रहपूर्वक खिलाते रहे। प्रसाद पा लेने के अनन्तर सभी ने थोड़ा-थोड़ा विश्राम किया, फिर राय रामानन्द जी तथा सार्वभौम भट्टाचार्य आकर भक्तों से मिले। प्रभु ने परस्पर एक-दूसरे का परिचय कराया। भक्त एक दूसरे का परिचय पाकर परम प्रसन्न हुए। फिर महाप्रभु सभी भक्तों को साथ लेकर जगन्नाथ जी के मन्दिर के लिये गये। मन्दिर में पहुँचते ही महाप्रभु ने संकीर्तन आरम्भ कर दिया। पृथक पृथक चार सम्प्रदाय बनाकर भक्तवृन्द प्रभु को घेरकर संकीर्तन करने लगे। |