श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी96. सार्वभौम और गोपीनाथाचार्य
आचार्य ने कुछ क्षोभ के स्वर में कहा- ‘आपको तो समझाना इसी प्रकार है जैसे ऊसर भूमि में बीज बोना। परिश्रम तो व्यर्थ जाता ही है, साथ ही बीज का नाश होता है।’ कुछ विनोद के स्वर में सार्वभौम ने कहा- ‘उपजाऊ भूमि के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ और इससे प्रार्थना करता हूँ कि हमारे ऊपर भी कृपा करे। आप आपे से बाहर क्यों हुए जाते हैं, हमें समझाइये, आप किस प्रकार इन्हें साक्षात ईश्वर कहते हैं।’ आचार्य ने कहा- ‘सोते को तो जगाया भी जा सकता है, किन्तु जो जागता हुआ भी सोने का बहाना करता है, उसे भला कौन जगा सकता है? आप जान-बूझकर भी अनजानों की-सी बातें कर रहे हैं, अब आपकी बुद्धि को क्या कहूँ? आप जानते नहीं- ‘गुरु: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।’ इसमें गुरु को साक्षात परब्रह्म बताया गया है। क्या गुरु साक्षात परब्रह्म नहीं हैं ? जिनकी संगति से श्रीकृष्णपदारविन्दों में अनुराग हो, उनमें और श्रीकृष्ण में मैं कुछ भी भेद नहीं समझता। जो भी कुछ भेद प्रतीत होता है, वह व्यवहार चलाने के लिये है। वास्तव में तो गुरु और श्रीकृष्ण एक ही हैं। वे अपने-आप ही कृपा करके अपने चरणों में प्रीति प्रदान करते हैं। वे जब तक किसी रूप से कृपा नहीं करते तब तक उनके चरणों में प्रेम होना असम्भव है।’ वासुदेव सार्वभौम ने कहा- ‘आचार्य महाशय ! यह तो कुछ भी बात नहीं हुई। इसका तो सम्बन्ध भावना से है और अपनी-अपनी भावना पृथक-पृथक होती है। यह बात तो सचमुच शास्त्रों से परे की है। दृढ़ और शुद्ध भावना के अनुसार मानने के लिये मजबूर नहीं कर सकते। आपकी उन संन्यासी युवक में गुरु-भावना या परब्रह्म की भावना है, तो ठीक है। किन्तु हम भी आपकी बातों से सहमत हों, इस बात का आग्रह करना आपकी अनधिकार चेष्टा है। हम उन्हें एक साधारण संन्यासी ही समझते हैं। वैसे वे बेचारे बड़े सरल हैं, भगवान की उनके ऊपर कृपा है, इस अल्पावस्था में भगवान के पादपद्मों में इतना अनुराग, ऐसा अलौकिक त्याग, इतना अद्भुत वैराग्य सब साधुओं में नहीं मिलने का। बहुत खोजने पर लाखों, करोड़ों में ऐसा अनुराग मिलेगा। हम उनके त्याग, वैराग्य और भगवत-प्रेम के कायल हैं, किन्तु उन्हें आपकी तरह ईश्वर मानकर लोगों में अवतारपने का प्रचार करें, यह हमारी शक्ति के बाहर की बात है।’ |