श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी96. सार्वभौम और गोपीनाथाचार्य
इस प्रसंग को समाप्त करने की इच्छा से बात के प्रवाह को बदलते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘आप तो हमारे जो कुछ हो सो हो ही, हमारी किसी बात को बुरा न मानना। हमारा-आपका तो सम्बन्ध ही ऐसा हैं, कोई अनुचित बात मुंह से निकल गयी हो तो क्षमा कीजियेगा।’ आचार्य ने कुछ उपेक्षा-सी करते हुए कहा- ‘क्षमा की इसमें कौन-सी बात है! मैं भगवान से प्रार्थना करूँगा कि आपके इन नास्तिकों के–से विचारों में वे परिवर्तन करें और आपको अपना कृपापात्र बना लें।’ हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘आप पर ही भगवान की अनन्त कृपा बहुत है। उसी में से थोड़ा हिस्सा हमें भी दे देना। हां, उन संन्यासी महाराज को कल हमारी ओर से भोजन का निमन्त्रण दे देना। कल हमारी इच्छा उन्हें यहीं अपने घर में भिक्षा कराने की है।’ इसके अनन्तर कुछ और इधर-उधर की दो-चार बातें हुई और अन्त में मुकुन्ददत्त के साथ गोपीनाथाचार्य प्रभु के स्थान के लिये चले। सार्वभौम की शुष्क तर्कों से मुकुन्ददत्त को मन-ही-मन बहुत दुख हो रहा था। आचार्य भी कुछ उदास थे। प्रभु के समीप पहुँचकर गोपीनाथाचार्य ने सार्वभौम से जो-जो बातें हुई थीं, उन्हें संक्षेप में सुनाते हुए कहा- ‘प्रभो ! मुझे और किसी बात से दु:ख नहीं है। दु:ख का प्रधान कारण यह है कि सार्वभौम अपने आदमी होकर भी इस प्रकार के विचार रखते हैं। प्रभो ! उनके ऊपर कृपा होनी चाहिये। उनके जीवन में से नीरसता को निकालकर सरसता का संचार कीजिये। यही मेरी श्रीचरणों में विनीत प्रार्थना है।’ प्रभु ने कुछ संकोच के साथ अपनी दीनता दिखाते हुए कहा- ‘आचार्य महाशय ! यह आप कैसी भूली भूली-सी बातें कह रहे हैं। सार्वभौम तो हमारे पूज्य हैं- मान्य हैं, वे मुझपर पुत्र की भाँति स्नेह करते हैं, उनसे बढ़कर पुरी में मेरा दूसरा शुभचिन्तक कौन होगा? उन्हीं के पादपद्मों की छाया लेकर तो मैं यहाँ पड़ा हुआ हूँ। वे मेरे लिये जो भी कुछ सोचें, उसी में मेरा कल्याण होगा। जिस बात से उन्हें मेरे अमंगल की सम्भावना होगी उसे वे अवश्य ही बता देंगे। इसी बात में तो मेरी भलाई है। यदि गुरुजन होकर वे भी मेरी प्रशंसा ही करते रहेंगे, तो मैं इस कच्ची अवस्था में संन्यास-धर्म का पालन कैसे कर सकूँगा? आप उनकी किसी भी बात को बुरा न मानें और सदा उनके प्रति पूज्यभाव रखें, वे मेरे, आपके-सबके पूज्य हैं। वे शिक्षक, उपदेष्टा, आचार्य तथा हमारे हितचिन्तक हैं।’ इस प्रकार नम्रतापूर्वक आचार्य को समझाकर प्रभु ने उन्हें बिदा किया और आप भक्तों के सहित श्रीकृष्ण-कीर्तन करने लगे। |