श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी96. सार्वभौम और गोपीनाथाचार्य
जोरों से हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘बाबा! दया करो, उस बेचारे संन्यासी को आकाश पर चढ़ाकर उसके सर्वनाश की बातें क्यों सोच रहे हो? पुराने लोगों ने ठीक ही कहा है- ‘आचार्य ने उड़ने की शक्ति नहीं होती, पीछे से शिष्यगण ही उसके पंख लगाकर उन्हें आकाश में उड़ा देते हैं, मालूम पड़ता है आप इस युवक संन्यासी के अभी से पर लगाना चाहते हैं। आपकी दृष्टि में ये ईश्वर हैं?’ आवेश के साथ आचार्य ने कहा- ‘हाँ ईश्वर हैं, ईश्वर हैं, ईश्वर हैं। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ ये साधारण जीव नहीं हैं।’ आचार्य की आवेशपूर्ण बातों को सुनकर सार्वभौम के आसपास में बैठे हुए सभी शिष्य एकदम चौंक-से पड़े। सार्वभौम भी कुछ विस्मित-से होकर आचार्य के मुख की ओर देखने लगे। थोड़ी देर के पश्चात हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘मुँह आपके घर का है, जीभ उधार लेने किसी के पास जाना नहीं पड़ता, जो आपके मन में आवे वह अनाप-शनाप बकते रहें। किन्तु आपने तो शास्त्रों का अध्ययन किया है, भगवान के अवतार तीनों ही युगों में होते हैं। कलिकाल में इस प्रकार के अवतारों की बात कहीं भी नहीं सुनी जाती। फिर अवतार तो सब गिने-गिनाये हैं। उनमें तो हमने ऐसा अवतार कहीं नहीं सुना। वैसे तो जीवमात्र को ही भगवान का अंश होने से अवतार कहा जा सकता है। अथवा- श्रीमदभागवत के इस श्लोक के अनुसार असंख्य अवतार भी माने जा सकते हैं और वे आवश्यकता पड़ने पर सब युगों में उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु उनकी गणना अंशाश-अवतारों में भी की गयी है जैसा कि श्रीमद्भगवदगीता में कहा हैं- इस दृष्टि से आप इन संन्यासी को अवतार कहते हैं, तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं, किन्तु ये ही साक्षात सनातन परब्रह्म हैं, सो कैसे हो सकता है? भगवान श्रीकृष्ण ही सनातन पूर्ण ब्रह्म हैं, उनका अवतार युगों में नहीं होता, कल्पों में भी नहीं होता, कभी सैकड़ों-हजारों युगों के पश्चात वे अवतीर्ण होते हैं। इसलिये आप कोरी भावुकता की बातें कर रहे हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सूत जी शौनकादि ऋषियों से कह रहे हैं- हे ब्राह्मणों ! जिस प्रकार अक्षय सरोवर में से सहस्त्रों छोटी-छोटी नदियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार सत्त्वगुण के समुद्र श्रीहरि से भी असंख्य अवतार होते हैं। श्रीमद्भा. 1/3/26
- ↑ कान्ति, लक्ष्मी और प्रभावादि से युक्त जो भी विभूतिमान प्राणी दृष्टिगोचर हों उन-उन सभी को मेरे तेज का अंशावतार ही समझ। 10/41