श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी96. सार्वभौम और गोपीनाथाचार्य
सार्वभौम ने पूछा- ‘इन निमाई पण्डित ने किन से सन्यांस लिया है और इनके संन्यासाश्रम का क्या नाम है?’ गोपीनाथाचार्य ने कहा- ‘श्रीकृष्ण चैतन्य।’ कटवा के समीप जो केशव भारती महाराज रहते हैं, वे ही महाभाग संन्यासीप्रवर न्यासी चूड़ामणि महापुरुष इनके संन्यासाश्रम के गुरु हैं।’ सार्वभौम समझ गये कि केशव भारती कोई विद्वान और नामी संन्यासी तो हैं नहीं। ऐसे ही साधारण संन्यासी होंगे। फिर दण्डी संन्यासियों में भारतीयों को कुछ हेय समझते हैं। आश्रम, तीर्थ और सरस्वती- इन तीन दण्डी संन्यासियों में भारतीयों की गणना नहीं। उनके लिये दण्ड धारण करने का विधान तो है, किन्तु उनका दण्ड आधा समझा जाता है। यही सब विचारकर वे आचार्य से कुछ मुँह सिकोड़कर कहने लगे- ‘नाम तो बड़ा सुन्दर है, रूप-लावण्य भी इनका अद्वितीय है। कुछ शास्त्रज्ञ भी मालूम पड़ते हैं। उच्च ब्राह्मण-कुल में इनका जन्म हुआ है, फिर इन्होंने इस प्रकार हेय-सम्प्रदाय वाले संन्यासी से दीक्षा क्यों ली? मालूम होता है, बिना सोचे-समझे आवेश में आकर इन्होंने मूंड़ मुंड़ा लिया। यदि आप सब लोगों की इच्छा हो, तो हम किसी योग्य प्रतिष्ठित दण्डी स्वामी को बुलाकर फिर से इनका संस्कार करा दें।’ इस बात को सुनकर कुछ दु:ख प्रकट करते हुए आचार्य ने कहा- ‘आपकी बुद्धि तो निरन्तर शास्त्रों में शंका करते-करते शंकित सी बन गयी है। आपकी दृष्टि में घट-पट आदि बाह्म वस्तुओं के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं। ये साक्षात भगवान हैं, इन्हें बाह्य उपकरणों की क्या अपेक्षा? ये तो स्वयंसिद्ध त्यागी, संन्यासी, वैरागी और प्रेमी हैं; इन्हें आपकी सिफारिश की आवश्यकता न पड़ेगी।’ सार्वभौम ने कहा- ‘आपकी ये ही भावुकता की बातें तो अच्छी नहीं लगतीं। हम तो उन बेचारों के हित की बातें कह रहे हैं। अभी उनकी नयी अवस्था है। संसारी सुखों से अभी एकदम वंचित- से ही रहे हैं। ऐसी अवस्था में ये संन्यास-धर्म के कठोर नियमों का पालन कैसे कर सकेंगे?’ आचार्य ने कहा- ‘ये नियमों के भी नियामक हैं। इनका संन्यास ही क्या? यह तो लोक-शिक्षा के निमित्त इन्होंने ऐसा किया है।’ हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘यह खूब रही, युवावस्था में इन्हें यह लोक-शिक्षा की खूब सूझी। महाराज ! आप कहीं लोक-शिक्षा के निमित्त ऐसा मत कर डालना।’ |