श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी90. महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
प्रभु के मुख से अपने लिये ऐसे स्तुति-वाक्य सुनकर नित्यानन्द जी से कुछ लज्जित-से हुए और संकोच के स्वर में कहने लगे- ‘प्रभो ! आप सर्व-समर्थ हैं, जिसे जो चाहें सो कहें, जिसे जितना ऊँचा चढ़ाना चाहें चढ़ा दें। आप तो अपने सेवकों को सदा से ही अपने से अधिक सम्मान प्रदान करते रहे हैं। यह तो आपकी सनातन रीति है, इस प्रकार प्रेम की बातें होने पर सभी ने विश्राम किया और उस रात्रि में वहीं निवास किया। प्रात: काल नित्यकर्म से निवृत होकर प्रभु आगे चलने लगे। मत्त गजेन्द्र की भाँति प्रेम-वारुणी के मद में चूर हुए नाचते, कूदते और भक्तों के साथ कुतूहल करते हुए प्रभु आगे चले जा रहे थे, कि इतने में ही इन्हें एक वाममार्गी शाक्त पन्थी साधु मिला। प्रभु की ऐसी प्रेम की उच्चावस्था देखकर उसने समझा ये भी कोई वाममार्गी साधु हैं, अत: प्रभु से वाममार्गी पद्धति से प्रणाम करके कहने लगा- ‘कहो, किधर-किधर से आ रहे हो? आज तो बहुत दिन में दर्शन हुए?’ प्रभु ने विनोद के साथ कहा- ‘इधर से ही चले आ रहे हैं, आपका आना किधर से हुआ? कुछ हाल-चाल तो सुनाओ। भैरवी चक्र में खूब आनन्द उड़ाता है न ?’ प्रभु की बातें सुनकर और ‘भैरवी चक्र’ तथा ‘आनन्द’ आदि वाममार्गियों के सांकेतिक शब्दों को सुनकर वह सब स्थानों के शाक्तों का सम्पूर्ण वृतान्त सुनाने लगा। प्रभु उसकी बातों को सुनते जाते थे और साथियों की ओर देखकर हंसते जाते थे। अन्त में उसने कहा- ‘चलिये, आज हमारे मठ पर ही निवास कीजिये। वह सब मिलकर खूब ‘आनन्द’ उड़ावेंगे।’ प्रभु हँसते हुए नित्यानन्द जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद ! ‘आनन्द’ उड़ाने की इच्छा है? ये महात्मा तो शान्तिपुर के रास्ते में जैसे आनन्दी संन्यासी मिले थे, उसी प्रकार के जन्तु हैं। आपके पास आनन्द की कमी हो तो कहिये।’ |