श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी90. महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
नित्यानन्द जी ने प्रभु की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे जोरों से हंसने लगे तब उस वाममार्गी साधु ने कहा- ‘नहीं आप लोग कुछ और न समझें। मेरे मठ में ‘आनन्द’ की कुछ कमी नहीं है। आप लोग जितना भी उड़ाना चाहे उड़ावें। चलिये, आप लोग आज मेरे मठ को ही कृतार्थ कीजिये।’ प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘हाँ-हाँ, ठीक तो हैं, आप आगे चलकर सब ठीक-ठाक करें, हम पीछे से आते हैं। यह सुनकर वह साधु अगे को चला गया। प्रभु की प्रेममयी अवस्था देखकर उसने समझा, ये भी कोई हमारी तरह संसारी नशीली चीजों का सेवन करके पागल बनने वाले साधु होंगे। उसे पता नहीं था कि इन्होंने ऐसे प्याले का पी लिया, जिसे पीकर फिर दूसरे अम्ल की जरुरत ही नही पड़ती। उसी के नशे में सदा झूमते रहते हैं। कबीरदास जी ने इसी प्याले को तो लक्ष्य करके कहा हैं- कबीर प्याला प्रेम का अन्तर लिया लगाय। धन्य है, ऐसे अमलियों को। ऐसे नशेखोरों के सामने ये संसारी सभी नशे तुच्छ और हेय हैं। इस प्रकार अपने सभी साथियों को आनन्दित और सुखी बनाते हुए प्रभु पुरी के पथ को तै करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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